________________
पुनः पाप और उससे फिर कर्म, फिर उस कर्म से वापिस पाप होता ही रहता है । इस तरह पाप और कर्म के संयोग से यह संसार अनन्त काल तक चलता ही रहता है । इसका कोई अन्त संभव ही नहीं है । जी हाँ, एक संभावना है कि या तो अण्डा ही फूट जाय तो मुर्गी पैदा न हो और क्रम तूट जाय। या फिर मुर्गी ही बीच में मर जाय तो भी आगे अण्डा पैदा नहीं होगा। और बीच में क्रम तूट जाएगा। तो अनन्तता का क्रम नहीं रहेगा। ठीक इसी तरह या तो हम यहाँ पर पाप की प्रवृत्ति ही करना छोड़ दें तो आगे कर्म का बंध ही नहीं होगा। या फिर कर्म ही जो सत्ता में पड़ा है उसे ही उदीरणा करके उदय में आने के पहले ही विशिष्ट प्रकार के पुरुषार्थ से समाप्त-क्षय कर दिया जाय, ताकि उससे आगे का क्रम तूट जाय । या फिर कर्म जब उदय में आता है तब साधक पूर्ण रूप से धर्म की शरण में रहे । धर्माराधना करते हुए संवर-निर्जरा के भाव में रहे । ताकि क्या हो कि उस कर्म का जोर न रहे, और जीव वैसी पाप की प्रवृत्ति ही न करे । संवर धर्म-विरति धर्म व्रत-पच्चक्खाण में स्थिर रखता है । जैसे आग फैलने के मार्ग में पानी का भराव आग को रोकता है । या पानी की बाढ आती है तब एक पाल या दिवाल उसे रोक देती है। ठीक उसी तरह संवर धर्म आनेवाले पाप कर्म को रोक देता है और निर्जरा का धर्म उसे मूल सत्ता में से ही क्षय-खतम कर देता है।
सच देखा जाय तो धर्म का सही उपयोग यही है । इसी के लिये ही धर्म है । जैसे रोग के लिए दवाई है । ठीक उसी तरह कर्म के लिये धर्म है । अर्थात् कर्म के सामने धर्म की व्यवस्था है । अतःप्रत्येक साधक को कर्म का प्रमाण देखते हए धर्म करना ही चाहिए। कर्म कितने भारी हैं ? कौन सा कर्म कितना ज्यादा जोर करता है? किस कर्म की प्रकृति मुझे पाप करने के लिये ज्यादा बाध्य करती है ? किस कर्म का उदय ज्यादा है ? किस कर्म की स्थिति कितनी ज्यादा है ? किस कर्म की तीव्रता-मन्दता-गाढता-प्रगाढता कितनी ज्यादा है ? यह सब देखकर उचित रूप से धर्म करना चाहिए । जैसे ४-६ रोग एक साथ होते हैं तो उसमें भी हम देखते हैं कि कौन सा रोग ज्यादा बलवत्तर है? किस रोग की वेदना.कितनी तीव्र है ? किस रोग की स्थिति ज्यादा घातक है? यह सब विचार करके जैसे डॉक्टर किसी एक रोगको प्राधान्यता देता है और उस तरह वह तीव्रतम उपचार क्रमशः करता है । ठीक उसी तरह साधक को अन्तरात्मा में झांकना चाहिए। जैसे शरीर के रोग–बीमारियाँ हैं, ठीक वैसे ही कर्म यह आत्मा पर लगी हुई बीमारी है। शरीर के रोग तो सामान्य हैं, ये तो थोडे समय में मिट भी जाते हैं । परन्तु आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी रोग तो जन्मों-जन्म तक भी नहीं मिटते हैं। स्पष्ट कहा है कि
अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना"
__
९१९