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आदि इसीलिए लेते–मांगते रहेंगे कि जिससे हमारे दुःख नष्ट हो जाय। लेकिन फिर समझिए इस हेतु को कि...क्या पापकर्म के सत्ता में रहते हुए दुःख मिट जाएंगे? दुःख चले जाएंगे? नहीं, कदापि नहीं। इसलिए देव-गुरु-धर्म-भगवान का उपयोग दुःखनाश के उपाय रूप में न करें, बल्कि पापकर्म के नाश के लिए उपयोग करना ही सही सच्चा सदुपयोग है।
भगवान की भक्ति, गुरु की सेवा–भक्ति, भगवान के उपदेश का श्रवण एवं तदनुरूप आचरण करना, आज्ञा का पालन करना, प्रभु नामस्मरण द्वारा जप तथा ध्यानादि करना, तपश्चर्या करना, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषधादि द्वारा संवर धर्म की उपासना करना, इस तरह धर्मक्षेत्र में भी पंचाचार की आराधना करना यह पापकर्म क्षय करने के लिए-धोने के लिए पर्याप्त साधना है। आखिर नमस्कार महामंत्र में भी सातवें पद में "सव्वपावप्पणासणो" के पद द्वारा लक्ष्य-उद्देश्य भी सब पापकर्म के क्षय-नाश का ही बताया है। नहीं कि- “सव्वदुःखपणासणो” का। सब दुःख के नाश का लक्ष्य न रखें बल्कि समस्त पापकर्मों के समूल क्षय-नाश का उद्देश्य लक्ष्य रखकर ही देव, गुरु और धर्म का उपयोग करना सच्चा-सही सदुपयोग है । इसी में धर्म के सम्यग् आचरण की सार्थकता है । अतः जब श्रद्धा के बल पर मान्यता सही रखनी है तो फिर उसके अनुरूप आचरण के रूप में धर्माचरण भी सही ही करना चाहिए। इस तरह अपनी आत्मा को समझाकर अप्रमत्त बनाने की कक्षा में लानी ही चाहिए। निर्जरा का लक्ष्य, साध्यरूप मोक्ष की प्राप्ति का लक्ष्य रखकर मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति से बचने का एकमात्र उपाय बनाकर साधक बनना ही अप्रमत्त बनने की तैयारी रहेगी। मोहनीय कर्म की मुख्य प्रवृत्तिरूप कषाय, नोकषाय तथा वेदादि की प्रवृत्ति ही समूल नष्ट करनी । यद्यपि उसी के बीच संसार में रहना है, जीना है, फिर भी उसी से बचकर ही रहना है । अन्यथा कोई विकल्प ही नहीं
अप्रमत्त साधक
सचमुच अप्रमत्त साधक ही सच्चा साधक है। साधक हो और प्रमादग्रस्त हो यह कैसे संभव हो सकता है ? साधकपना और प्रमादाधीनपना यह परस्पर विरोधी बात है। अतः दोनों का साथ रहना संभव ही नहीं है। जैसे एक तैराकी समुद्र के बीच तैरने के लिये गिरा हो, भयंकर ज्वार-भाटा की लहरें जिसमें उछलती हो, ऐसे भयानक समुद्र में उसकी भयानकता देखते हुए भी जो समुद्र में गिरा हो, वह तैरने का पुरुषार्थ करेगा या फिर
अप्रमतभावपूर्वक "ध्यानसाधना"