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________________ प्रमादग्रस्त बनकर आराम करेगा ? चलेगा ? जी नहीं । कदापि नहीं । यदि वह अपने हाथ-पैर हिलाना ही छोड़ दे, प्रमादाधीन होकर छोड़ दे तो क्या हालत होगी ? बस, फिर तो डूब जाएगा । अतः समुद्र उसे नहीं डुबो रहा है, परन्तु वह जीव स्वयं अपनी प्रमादि वृत्ति से डूब रहा है । 1 ठीक इसी तरह यह संसार भी समुद्र के जैसा अगाध है । संसार को समुद्र की उपमा देना सार्थक है, क्योंकि काफी अंशों में समानता मिलती है। अतः ऐसे भयंकर संसार समुद्र में कौन गिरते हैं ? इसके लिए पू. शान्तिसूरि म. “जीव विचार प्रकरण" ग्रन्थ में स्पष्ट कहते हैं कि एवमणोरपारे संसारे सायरंमि भीमंभि । पत्तो क्षणंतखुत्तो जीवेहिं अपत्त धम्मेहिं ॥ - जिसका कभी पार नहीं पाया जा सकता है ऐसे अणोरपारे - भयंकर संसाररूपी — समुद्र में धर्म न पाने के कारण, धर्म के अभाव में जीव इस संसार समुद्र के अनन्तगुने गहरे खड्डे में गिरता है । यहाँ अनन्तगुना गहरा खड्डा कहने का तात्पर्य यह है कि... ८४ लक्ष जीव योनियों के संसार चक्र में जाकर चारों गतियों में अनन्त जन्म-मरण धारण करते हुए अनन्त काल निर्गमन करने के कारण उसे अनन्त गुना गहरा खड्डा कहा जाता है। ऐसे भयंकर संसार समुद्र में गिरनेवाला जीव फिर वापिस कब ऊपर आएगा? कैसे ऊपर उठेगा ? कब तैरकर संसार के पार पहुँचेगा ? या तो धर्म पाने के बाद प्रमाद करने के कारण पतन होगा या फिर धर्म ही न पाने के कारण जीव का पतन होता है । तात्पर्यार्थ देखने पर यह स्पष्ट होता है कि... धर्म पाकर भी प्रमाद के कारण कर्म न करना और धर्म पाना ही नहीं, आखिर दोनों की समानता ही लगती है। क्या फर्क है ? कुछ भी नहीं ! धर्म पानेवाले ने भी यदि पूरा प्रमाद के कारण व्यर्थ गंवाया है तो फिर पाना - न पाना सब एक समान ही रहा । ठीक समुद्र में तैराकी को, क्रिकेट के मैदान में खिलाडी को, प्लेन या ट्रेन-गाडी चलानेवाले चालक को जितना ज्यादा सजग रहना चाहिए, शायद उससे भी हजार गुना ज्यादा एक मोक्षाभिमुख - मुमुक्षु साधक को सजग - सावधान रहना चाहिए । सजग-जागृत साधक ही अप्रमत्त साधक है तैराकी - खिलाडी या चालकादि की सजगता - सावधानी कायिकं ज्यादा रहती है। मानसिक कम भी रहती होगी। क्योंकि विचार तन्त्र शायद उसके स्वाधीन हो या न भी ९१६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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