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________________ छुटकारा पाने की भावना प्रबल बनती है । राग-द्वेषादि कषाय, नोकषाय एवं वेद मोहनीय कर्म की प्रवृत्ति करने से जिन भारी कर्मों का बंध होता है और उनके उदय में आने से जिस प्रकार के भारी दुःख और वेदना-पीडात्मक सजा जो भुगतनी पडती है, तथा तिर्यंच-नरकगति का दुःख भी सहन करना पडता है । ऐसी दुर्गति और दुःख का विचार करके उस प्रकार की पापप्रवृत्ति से बचने का लक्ष्य ही बन जाता है। इससे पापभीरुता निर्माण होती है। जैसे जैसे पापप्रवृत्ति बढती ही जाएगी, कर्मबंध होते ही जाएंगे, गतियाँ बिगडेगी। नरक-तिर्यंच की गति-जन्म में भी बडे-बडे भव होते जाएंगे। इस तरह संसार कितना बढता जाएगा? भव परंपरा कितनी बढती जाएगी? कितना काल संसार का बढता जाएगा? इस तरह तो मोक्षप्राप्ति में कितना अन्तर बढता जाएगा? __अब पापभीरु बनना है कि दुःखभीरु बनना है ? भीरु शब्द भय-डर के अर्थ में है। दुःख से डरने का कोई अर्थ नहीं है । क्योंकि दुःख का मूल कारण तो कर्म है । कारण के पडे रहने पर कार्य कैसे समाप्त हो जाएगा? अग्नि के चालू रहने पर धुंआ कैसे बन्द हो जाएगा? और यदि आग चालू ही है तथा उसमें से धुंआ निकलता ही जा रहा है तथा कोई व्यक्ति आकर यदि धुंए पर पानी डालता ही जाएगा तो उससे क्या आग बुझ जाएगी? जी नहीं, कदापि नहीं। पहली बात तो धुंए पर पानी डालना ही मूर्खता होगी। फिर धुंए पर पानी डालना ही निरर्थक है । उससे आग बुझने का हेतु कभी सिद्ध नहीं होगा । इसलिए धुंए की अपेक्षा तो उसका जनक कारणभूत जो मुख्य द्रव्य अग्नि है उसको ही बुझाना चाहिए। आग पर पानी डालने से आग बुझ जाने के कारण धुंआ भी लोप हो जाएगा। ठीक इसी तरह दुःख धुंए की जगह है और पापकर्म मूल अग्नि के स्थान पर है। अतः मात्र दुःखभीरु ही बनना पर्याप्त नहीं है । उसकी अपेक्षा पापभीरु बनना ही श्रेयस्कर है। दुःख का जनक मूल कारणभूत द्रव्य ही पापकर्म है। अतः समझकर आग पर पानी डालकर आग बुझाने की तरह ही मूलभूत पापकर्म की ही निर्जरा द्वारा सत्ता में से समाप्त करने में ही बडी समझदारी है । आज भी संसार में दुःख से डरनेवालों की, दुःख से बचने की इच्छावालों की संख्या ९५% से ९८% फीसदी है। लेकिन उसके कारणभूत-जनकरूप पापकर्म जो सत्ता में पडा है उसके क्षय करने के लिए अर्थात् समूल संपूर्ण पापकर्म धोनेवाले शायद ही १% प्रतिशत जीव भी मुश्किल से होंगे ! शायद १% भी होंगे या नहीं ! जब पाप कर्म का क्षय करने की इच्छावाले ही नहीं हैं और अधिकांश दुःखनाश के लिए देव-गुरु-धर्म की शरण स्वीकारेंगे। या तो वे भगवान के पास दुःखनाश के लिए प्रार्थना-याचना करते रहेंगे, या फिर गुरुओं के पास आशीर्वाद ९१४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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