SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १४ अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ... चतुर्थानां कषायाणां जाते मन्दोदये सति। भवेतामादहीनत्वादप्रमत्तो महाव्रती ।। ३२ ॥ . अनन्त उपकारी अनन्तज्ञानी अरिहंत परमात्मा के चरणों में अनन्तानन्त नमस्कारपूर्वक.... ग्रन्थकार महर्षि पूज्य रत्लशेखरसूरीश्वरजी म. “गुणस्थान क्रमारोह” ग्रन्थ में आगे अप्रमत्तभाव का वर्णन करते हुए लिखते हैं.... अप्रमत्त बनने के उपाय अनन्त काल तक जीव प्रमाद ग्रस्त रहा है । प्रमादाधीन रहकर कई भारी कर्म उपार्जन . करता ही रहा। तथा उन भारी कर्मों के उदय में आने के कारण विपाक रूप से अनेक प्रकार का दुःख भी भुगतता ही रहा है। इस तरह प्रमाद ने इस जीव का कितना भारी नुकसान कितने वर्षों, जन्मों और भवों तक किया है, करता ही रहा है, और आगे भी करता ही रहेगा। जब तक जीव स्वयं समझकर प्रमाद का पीछा नहीं छोडेगा तब तक तो यह क्रम चलता ही रहेगा। प्रमाद आखिर है क्या? आत्माभिमुखी न बनना और स्वगुणरमणता में भी न रहना,आत्मा के उपयोग भाव में स्थिर न रहना, संसार की सांसारिक राग-द्वेष की वृत्ति-प्रवृत्ति में सदा काल मशगुल रहना ही सबसे बड़ा प्रमाद है। और जब तक जीव राग-द्वेष की रुचि रखेगा, उनमें इच्छा रखेगा-प्रवृत्ति करता रहेगा, तब तक तो प्रमादावस्था मिटने का कोई प्रश्न ही खडा नहीं होता है । यह प्रमाद मात्र शारीरिक ही नहीं है। यह मात्र मानसिक ही है ऐसा भी नहीं है । यह तो आत्मिक वृत्ति का प्रमाद है। आश्रवग्रस्त रहना भी प्रमाद के कारण है । बस अब तो उपादेय तत्त्व जो संवर और निर्जरा है उनका ही एकमात्र लक्ष्य बन जाय तो ही प्रमाद से बचना संभव है। दूसरी तरफ जीव का मोक्षलक्षी बनना बहुत जरूरी है । मोक्षकलक्षी बनने पर संसार की अरुचि और उपेक्षा बन जाती है। फिर प्रमाद भाव उस जीव को पसंद नहीं आता है। कभी न कभी उससे अप्रमत्तभावपूर्वक ध्यानसाधना" ९१३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy