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कौन दे सकता है कि यह उस कक्षा तक पहुँच पाया है या नहीं? इसलिए ऐसा मत समझिए कि बाह्याकार मात्र बनाकर अर्थात् शरीर की बाह्य स्थिति आसन में स्थिर कर देने मात्र से ध्यान आ जाता है। जी नहीं? यह तो भ्रमणा है । मनोगत मानसिक भाव की अप्रमत्तता यदि आती है तो ठीक है, अन्यथा नहीं।
सच देखा जाय तो स्थिर सद् ध्यान की स्थिति ही अप्रमत्त भाव की कक्षा है। ये दोनों ही पर्यायरूप हैं। अच्छा अप्रमत्त योगी ही सद् ध्यानी बन सकता है और ठीक इसी तरह अच्छा सद्ध्यानी-आत्मध्यानी ही अप्रमत्त कहला सकता है । अन्यथा तो संभव ही नहीं है। ऐसे ही किसी को आसनस्थ देखकर यदि कोई उसे अप्रमत्त, ध्यानी कह दे तो बहुत बड़ी भूल होगी। अतः अपने आप स्वयं ही धर्मध्यान में लीन होने के पश्चात ज्ञानी-ध्यानी गुरु यदि निर्णय दें तो ही उस जीव को सही मानना चाहिए। तो ही उसे अप्रमत्त की उपाधि देना उचित होगा, अन्यथा नहीं। . परन्तु जब तक उस कक्षा की अप्रमत्तावस्था प्राप्त नहीं होती है तब तक प्रमादादि के कारण जिन दोषों की संभावना ज्यादा रहती है उन दोषों की निवृत्ति के लिए षडावश्यकरूप-प्रतिक्रमणादि की क्रिया तो अवश्य ही करनी चाहिए। उभयभ्रष्ट बनने की अपेक्षा तो संवर-निर्जरा का मार्ग स्वीकार कर षडावश्यक की क्रिया करना तो लाभदायी ही है। .
. प्रमत्त गुणस्थानस्थ जीव- .
प्रमत्त गुणस्थानस्थ जीव तिर्यंच गति, तिर्यंच आयुष्य, नीच गोत्र, उद्योत, और प्रत्याख्यानीय ४ कषाय इन ८ प्रकृतियों का उदय विच्छेद होने से और आहारकद्विक का उदय होने से ८१ कर्मप्रकृतियों के उदयवाला बनता है। और १३८ कर्मप्रकृतियों की सत्तावाला बनता है । देशविरति गुणस्थान पाँचवे पर जिन ६७ प्रकृतियों का बंध होता है । उनमें से ४ अप्रत्याख्यानीय कषाय की प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने से प्रमत्त छठे गुणस्थान पर ६३ प्रकृतियों का बंध होता है। __इस तरह प्रमत्त गुणस्थानक का स्वरूप समझकर साधक जो मुमुक्षु-मोक्षाभिलाषी है उसे अग्रसर होना है । अतः कर्मक्षयं-निर्जरा के मार्ग पर आगे बढता हुआ गुणस्थान के एक-एक सोपान आगे बढना ही चाहिए। आगे अप्रमत्त गुणस्थान आठवाँ सोपान है। उसकी विशेष एवं ध्यानादि की विशद विचारणा करेंगे।
कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना"