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________________ मार्ग है । अतः ऐसे त्रैकालिक शाश्वत, अनादि, अनन्त, अनुत्पत्र, अविनाशी, आत्म द्रव्य को इस स्वरूप से विपरीत या भिन्न मानना ही नहीं चाहिए। फिर आत्मा को न मानना, या फिर उसे क्षणिक, शून्य या अनित्य ही मानना, या फिर उसे उत्पन्नशील, विनाशशील मानना या कहना यह सब बालिश चेष्टा है । पागलपन के प्रलापतुल्य है । फिर आत्मा के अभावात्मक लोप हो जाने को, विलय पाने को, या धुंए की तरह विलीन हो जाने को मोक्ष कहना यह सर्वथा न्यायिक नहीं है। ___ इसलिए वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध, सच्चा ज्ञान, सत्य तत्त्व की प्राप्ति ही सम्यक्त्व के लिए उपयोगी है । ग्राह्य है । वही तारक है । अतः राजमार्ग तो यही है कि चरम सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके ही ध्यान में प्रवेश करना चाहिए । अन्यथा सम्यक यथार्थ ज्ञान के ध्यान में प्रवेश करनेवाला साधक फिर भटकता ही रह जाएगा। बिना सच्चे ज्ञान और बिना सही ध्यान के मुक्ति की प्राप्ति कभी भी कदापि संभव ही नहीं होगी। मिथ्यात्व पुनः अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण कराता ही रहेगा। कभी अन्त नहीं आएगा। ध्यान शब्द से या अन्य किसी शब्द मात्र के प्रयोग से कोई लाभ नहीं होगा। यथार्थता तो उस प्रक्रि और उसके ज्ञान की प्राप्ति में रहती है। प्रमत्त के लिए प्रतिक्रमण तस्मादावश्यकैः कुर्यात्, प्राप्तदोषनिकृन्तनम्। यावन्नाप्नोति सद्ध्यान-मप्रमत्तगुणाश्रितम् .. ॥३१॥ ऐसी प्रमादग्रस्त स्थिति में इधर से उधर भटकने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। अतः गुणस्थान क्रमारोहकार स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि इधर-उधर भटकने के बजाय या फिर न घर के और न घाट के दोनों तरफ से कहीं के न रहे, धोबी के कुत्ते के जैसी हालत न हो, अर्थात् न तो ध्यान में प्रवेश हो सके और न ही आवश्यक क्रिया हो सके ऐसा न हो जाय, दोनों से वंचित रहने से तो ज्यादा अच्छा यह है कि... हमें प्रमादाधीन अवस्था में षडावश्यक की समस्त क्रियाएं अवश्य करनी ही चाहिए । इसमें संदेह नहीं रखना चाहिए। जहाँ तक हम सद् ध्यान, सही ध्यान की प्राप्ति न कर लें, वहाँ तक षडावश्यक की साधना क्यों छोडनी चाहिए? इसकी ध्वनि ऐसी जरूर निकलती है कि... सच्चे ध्यान के मार्ग पर आरूढ होकर मानसिक रूप से भी अप्रमत्त बन जाने के पश्चात् ही षडावश्यक की आवश्यकता नहीं रहती है । लेकिन, इसका निर्णय कौन करे? कि क्या यह जीव अब संपूर्ण रूप से सही अर्थ में अप्रमत्त बन गया है या नहीं? जीव की परीक्षा करके निर्णय ९१० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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