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Satavat भूत के बल पर पाओगे वही सच्चा होगा ऐसा कदाग्रह क्यों ? और आपने स्वयं ने क्या किया है ? क्या कहलानेवाले गुरु ने बुद्ध द्वारा ज्ञान को नहीं अपनाया ? तो फिर “सर्वं क्षणिकं”, “सर्वं शून्यं", "सर्वं अनित्यं ” यह कहाँ से पाया ? क्या “आत्मा नहीं है” यह आपने स्वयं अपनी अनुभूति पर प्राप्त किया हुआ है ? अरे ! संभव ही नहीं है । जो भी कोई स्वयं आत्मसाधना करने ध्यान की गहराई में जाएगा, और यदि वह सही अर्थ में सच्चा ध्यान होगा तो अवश्य ही वह सच्चा ज्ञान ही पाएगा। उसे आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति अवश्य ही सही सम्यग् होगी । सच्चे ध्यानी को कभी भी " आत्मा नहीं है” ऐसी विरुद्ध - विपरीत अनुभूति हो ही नहीं सकती, और यदि होती है तो निश्चित रूप से यह समझ रखिए कि वह ध्यान ही सही नहीं था । उसका ध्यान सम्यग् यथार्थ - सच्चा ध्यान ही नहीं है ।
“आत्मा है ही नहीं" इससे बढकर भ्रान्त गलत - भटकानेवाली धारणा और हो ही क्या सकती है ? इससे बढकर मिथ्यात्व और क्या हो सकता है ? अरे ! इतना ही नहीं " सर्वं शून्यं” पहले कह देना, बाद में उसी को वापिस “ सर्वं क्षणिकं” कहना । क्या यह ज्ञान ध्यान की सच्ची गहराई से निकला है ? कतई नहीं । यह तो सफेद झूठ है । सर्वं शून्यं” कहने से जगत् की सर्व वस्तुओं का अभाव सिद्ध हो जाता है । फिर तो जगत् में किसी भी वस्तु का स्वरूप रहता ही नहीं है । जगत् सारा अभावात्मक है । फिर भावात्मक पदार्थों का अस्तित्व ही कहाँ रहा ? अब जब पदार्थों का अपना अस्तित्व ही नहीं रहा, वे अभावात्मक ही है तो फिर उनको क्षणिक, नाशवंत और अनित्य कहना यह तो परस्पर विरोधाभाषी वक्तव्य है । परस्पर विरुद्ध वाक्यों की रचना से कहनेवाले के ज्ञान के बजाय अज्ञान की सिद्धि होती है । सर्व कहने से जगत् के सभी पदार्थ क्षणिक - नाशवंत सिद्ध हो जाते हैं । लेकिन ऐसा कहनेवाले बेचारे को इतना तक पता नहीं है कि जगत् में १) अनादि-अनन्त, २) अनादि - सान्त, ३) सादि - अनन्त और ४) सादि - सान्त ऐसे चारों प्रकार के स्वरूप का अस्तित्व है । जो पदार्थ अनादि-अनन्त होता है वह अनुत्पन्न - अविनाशी कक्षा के द्रव्य कहलाते हैं । जैसे कि “आत्मा” नामक द्रव्य है । यह जो अनुत्पन्न है अर्थात् कभी उत्पन्न नहीं होता है । जगत् में एक नियम यह भी है कि... जो उत्पन्न होता है वह सादि होता है अर्थात् उसकी आदि-शुरुआत होती है। आदिमान पदार्थ की उत्पत्ति होती है । और जिसकी उत्पत्ति होती है वह आदिमान पदार्थ होता है । और ठीक इससे विपरीत जो उत्पत्तिरहित अर्थात् अनुत्पन्न पदार्थ होता है वह अनादि कहलाता है । “आत्मा” नामक द्रव्य इस कक्षा का पदार्थ है । यह न तो कभी उत्पन्न होता
कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना "
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