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के बाजार में बेचते हैं— फैलाते हैं। स्वयं ने अपनी सुरक्षा के लिए दार्शनिक चर्चा नहीं करने का, दर्शनशास्त्र की तत्त्व की - ज्ञान की कोई बात न करने का कवच पहन लिया है । अन्यों को इस विषय का आग्रह न करने का आग्रह किया जाता है, लेकिन अपनी मान्यता को अपने मान्य दर्शन का ओप लगा दिया है। अपना मान्य दर्शन भगवान के नाम से जोडकर उस ध्यान साधना को भगवान के नाम का सही सिक्का भी लगा दिया ... । अरे ! इतना ही नहीं, हमारे मान्य भगवान ने भी यही ध्यान साधना इसी तरह की थी । यह उनकी ही बताई हुई ध्यान साधना है । बस, इस तरह प्रचार-प्रसार करते हुए दुनिया को सिखाया जाता है । सबसे बडा आश्चर्य तो इस बात का है कि... ध्यान तो सिखाना है, लेकिन ज्ञान को छिपाना है, या दबाना है । इससे ऐसी कमजोरी स्पष्ट होती है कि ... इस ध्यान साधना पद्धति में कोई सच्चा तत्त्वज्ञान ही नहीं है । यदि यह बात गलत हो तो तलाश कर लीजिए ! क्या आत्मा, परमात्मा, मोक्षादि तत्त्वों का स्पष्ट ज्ञान है ? जी नहीं। यह निश्चित है कि इन तीनों का सही सम्यग् सत्य ज्ञान ही नहीं है ऐसे तथाकथित बन बैठे हुए गुरुओं के पास । और यदि छुटपुट है भी तो वह भ्रान्त ज्ञान है । अधूरा ज्ञान है । मिथ्या ज्ञान है । विपरीत ज्ञान है
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इसी कारण सारी दिशा ही विपरीत है। इससे न तो आत्मज्ञान होगा, नही आत्मानुभूति होगी, न ही परमात्म तत्त्व का ज्ञान होगा। न ही परमात्म दर्शन या परमात्म स्वरूप की अनुभूति होगी। और न ही मुक्ति की प्राप्ति होगी । अरे प्राप्ति तो क्या मोक्ष स्वरूप का भी कभी ख्याल नहीं आएगा। क्यों आएगा ? कैसे आएगा ? क्योंकि मोक्ष और परमात्मा का भी पूरा आधार ही आत्म तत्त्व पर है । यदि आत्मा है तो मोक्ष है, और आत्मा ही नहीं है तो मोक्ष भी कभी संभव ही नहीं है । आत्मा के अस्तित्व के आधार पर मोक्ष के अस्तित्व का आधार है इसीलिए आत्मा का अस्तित्व स्वीकारें तो मोक्ष का अस्तित्व स्वीकारा जाएगा । अन्यथा संभव ही नहीं है ।
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इसी तरह परमात्मा यह आत्मा की अवस्था विशेष है। आत्मा ही परमात्मा बनती है । परमात्मा को तो किसी न किसी स्वरूप में मानना है और दूसरी तरफ आत्मा के ही अस्तित्व को नहीं मानना है यह कैसी विरोधाभासी विचारणा है ? इसी तरह मोक्ष भी क्या है ? आत्मा की कर्मरहित शुद्ध अवस्थाविशेष है । इसीलिए मुक्तात्मा सिद्धात्मा के नाम से व्यवहार किया जाता है । और संसारी आत्मा, शुद्धात्मा, अशुद्धात्मा यह भी व्यवहार किया जाता है । इन सभी शब्दों में आत्मा शब्द तो साथ ही जुडा है । मात्र आगे का विशेषण उस आत्मा की वैसी अवस्था बताता है। अब जब आधारभूत आत्म द्रव्य को ही न मानें
कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना "
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