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________________ अपना लेगा। लेकिन आत्मस्वरूप को पहचानने की दिशा में उसका यह बाहरी ध्यान अंशमात्र भी कामयाब नहीं होगा। और दूसरी तरफ ऐसा ध्यान सिखानेवाले गुरु ने पहले से ही आत्मदर्शन के दरवाजे बंद ही कर दिये हैं, साफ कह दिया है कि आत्मा है ही नहीं। आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है, फिर उसको मानने की झंझट में मत फसो। अपनी इस मान्यता का बचाव करने के लिए गुरु ने भी सामने ढाल ऐसी खडी कर दी कि... बस, आत्मा के विषय की यह बात दार्शनिक विषय की है इसलिए दार्शनिक चर्चा तो करनी ही नहीं। अरे ! अन्धा क्या जाने प्रकाश की चकाचौंध, रूप रंग की झगमगाहट? ठीक उसी तरह बिना ज्ञान का अज्ञानी क्या जाने ज्ञान का रसास्वाद? दर्शनशास्त्र तो ज्ञान के विषयक ज्ञेय पदार्थों को चकासने की कसोटी है । जैसे कसोटी का पाषाण सुवर्ण की परीक्षा करता है तभी जगत् के सर्वसामान्य व्यक्ति के लिए भी सोना. ग्राह्य-खरीदने योग्य बनता है । ठीक उसी तरह दर्शनशास्त्ररूपी कसोटी के पाषाण पर दार्शनिक आत्मादि तत्त्व की बात कसने पर वे पदार्थ खरे उतरते हैं। दर्शनशास्त्र में युक्ति प्रयुक्ति–तर्कादि के अनेक विषय हैं, अनेक प्रमाण एवं प्रमाण पद्धतियाँ हैं । अतः पदार्थ के स्वरूप को सही न्याय मिलता है। इसीलिए जगत् के सभी धर्मों ने अपने अपने तत्त्वों की परीक्षा दार्शनिक दृष्टि से की है। दर्शनशास्त्र की कसोटी पर तत्त्वों की परीक्षा करके चरम सत्य तक पहुँचने की कोशिश की है । इसलिए दर्शनशास्त्रीय प्रमाण पद्धति से मुँह मोडकर अपने मान्य तत्त्वों को कसोटी से छिपाना यह गलत है। इससे अपनी कमजोरियाँ सिद्ध होती हैं । प्रकट होती हैं। . अरे ! दीपक जो स्वयं प्रकाशमान है, प्रज्वलित है, उसे दुनियाँ की नजर से छिपाने की क्या आवश्यकता है ? ठीक इसी तरह ज्ञान भी प्रदीप की तरह “स्वपरव्यवसायी” है। अतः वह प्रमाणरूप है । दर्शनशास्त्र दार्शनिक तात्त्विक चर्चा द्वारा प्रमाणों से सिद्ध करके पदार्थों को सत्य की चरम सीमा तक ले जाने में सहायक-मददरूप बनता है । इसलिए जो भी दर्शन या धर्म अपने तत्त्वों के बारे में बिल्कुल स्पष्ट है उनको तो बिना घबराए अपने तत्त्वभूत पदार्थ दर्शनशास्त्र के बाजार में दुनिया के सामने सच्चे हीरे की तरह खुल्ले रख देने चाहिए। चाहे संसार का कोई व्यक्ति किसी भी तरह उनकी जाँच-परीक्षा करके उन तत्त्वभूत पदार्थों को खरीदे । भले ही कसोटी पर कस के परख ले। क्या एतराज है? आश्चर्य तो इस बात का है कि बन बैठे गुरु अपनी ध्यान की पद्धति को अनोखी खोज बताते हैं और उसे संसार की सर्वोपरि ध्यान साधना बताते हैं। फिर उसे किसी भगवान के साथ जोड देते हैं और इस तरह ट्रेडमार्क भगवान के नाम का लगाकर दुनिया ९०४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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