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________________ अब एक तरफ तो सब छुडा दिया और दूसरी तरफ ध्यान की साधना कुछ भी उसके पल्ले नहीं पडी। ऐसी स्थिती में “इतो भ्रष्ट-ततो भ्रष्ट” जैसी उभयभ्रष्टता की स्थिति कितनी खतरनाक एवं घातक सिद्ध होगी? ___ अरे ! इतना ही नहीं अधूरे में पूरा तो यह है कि जो तथाकथित ध्यान की पद्धतियाँ बताई जाती हैं उसमें भी मात्र देहाश्रित अवस्था बताई जाती है । श्वास दर्शन करते हुए शरीर में उठती हुई संवेदनाएं मात्र देखते रहने से क्या आत्मध्यान हो जाएगा? क्या ध्यान देहध्यान होता है कि आत्मध्यान होता है ? अच्छा, यदि आप एक तरफ तो आत्मध्यान करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ आत्मा को, आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानने की बात करते हैं । सोचिए, यह कैसी परस्पर विरोधाभासी बालिश चेष्टा है ? यदि इस श्वासदर्शन की प्रक्रिया को विपश्यना कही जाय तो फिर “विशेषेण पश्यति इति विपश्यना” की व्याख्या के अनुसार विशेषरूप से देखनेवाला कौन है और किसको देखें ? दृशं–प्रेक्षणे = यह संस्कृत भाषा की धातु देखने अर्थ है । आप भी सामान्यरूप से समझते ही हैं कि....देखने की क्रिया में देखनेवाला कर्ता और जिसको देखता है वह कर्म, इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व होना तो चाहिए। दो में से यदि एक का भी अस्तित्व न हो तो देखने की क्रिया कैसे होगी? यदि देखनेवाला दृष्टा है लेकिन किसको देखना वही नहीं हो तो किसको देखेगा? लेकिन संसार में देखनेलायक पदार्थ तो अनन्त हैं। प्रत्यक्ष गोचर हैं आबाल-गोपाल सबके लिए प्रत्यक्षसिद्ध हैं । इसलिए इसमें तो कोई ना नहीं कह सकता है। लेकिन दृष्टा जो देखनेवाला-देखने की क्रिया करनेवाला कर्ता ही यदि न हो और देखने योग्य पदार्थ अनन्त हो, तो भी कौन किसे देखेगा? देखनेवाले कर्ता को, उसके अस्तित्व को ही नहीं मानना और फिर कहना कि दृष्टा भाव से सब कुछ देखते ही रहो । अरेरे ! अफसोस कि कितनी अज्ञानता है ? फिर भी अपनी अज्ञानता को ही नहीं समझना, न ही स्वीकारना और सारी दुनिया को अपनी अज्ञानता सिखाना। ठीक है, सामान्य मनुष्य तो समझदार है ही नहीं । वह तो बेचारा कोरी पाटी के जैसा ही है । क्योंकि उस विषय का कुछ भी ज्ञान-जानकारी-समझ है ही नहीं। अतः अन्धा अनुकरण कर ही लेगा । जैसा कहोगे, बताओगे वैसा वह समर्पितभाव से स्वीकार करके कर ही लेगा। जैसा कि एक डाक्टर के प्रति दुःख का मारा स्वार्थवश समर्पित होकर दर्दी स्वीकार कर ही लेता है । और सूचनानुसार अमल भी कर ही लेता है। ठीक उसी तरह यहाँ आया हुआ साधक भी मन की बीमारी के कारण रोगी ही है। वह भी उससे छुटकारा पाना ही चाहता है । अपना रोग मिटाना चाहता है । इसलिए सामान्य श्वास दर्शन की प्रक्रिया को कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना" . ९०३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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