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________________ अरे ! थोडी सी बुद्धि का उपयोग करके सोचिए तो सही - जिन महावीर आदि तीर्थंकर भगवान ने संसार का त्याग करके १२ ॥ वर्षों तक जंगलों में विहारादि करते हुए मरणान्त उपसर्ग सहन करते हुए घोर तपश्चर्या करते हुए निरंतर ध्यान साधना में रहे । उत्कृष्ट कक्षा की ध्यान साधना करते हुए भ. महावीर ने चारों घाती कर्मों का क्षय किया, अद्भूत - अभूतपूर्व निर्जरा की। चारों घाती कर्मों का समूल - संपूर्ण क्षय करके केवलज्ञान - सर्वज्ञता और वीतरागता प्राप्त की । ऐसे सर्वज्ञ बने हुए परमात्मा ने अनन्तज्ञान प्राप्त करके जगत् के सामने उसे नदी की तरह बहा दिया । उसी ज्ञान को गुंथकर गणधरों ने द्वादशांगीरूप शास्त्र की रचना की। क्या उन शास्त्रों से सर्वज्ञ के साथ विरोधाभास संभव भी है? जी नहीं । कदापि नहीं । ऐसे सर्वज्ञ अनन्तज्ञानी का एक एक वचन चरम - अन्तिम सीमा को प्रस्तुत करता है । अब आप ही सोचिए, सत्य की चरम - अन्तिम सीमा को प्रस्तुत करनेवाले परमात्मा से क्या आज का प्रमादग्रस्त अल्पज्ञ ध्यानी या बन बैठा हुआ योगी उस कक्षा के अनन्त ज्ञान का अंशमात्र भी प्राप्त कर सकता है ? क्या संभव भी है ? अब मार्गदर्शक और बन बैठे योगी- ध्यानी गुरु जिसने स्वयं तो कुछ नहीं पाया । अरे ! हल्दी का एक टुकडा देने मात्र से कोई वैद्य चिकित्सक थोडे ही बन सकता है ? गुजराती कहावत के अनुसार - " हलदर ना गांगडे गांधी न थवाय” या वैद्य बनने मात्र से कुशल चिकित्सक नहीं बना जा सकता है। अब जो साधक स्वयं ज्ञानी बन नहीं सका और सर्वज्ञ के ज्ञान को पढना, जानना, समझना, स्वीकारना कुछ भी नहीं । सब ज्ञान के द्वार बन्द कर दिये और मात्र अपनी बुद्धि - अनुभूति के स्तर पर जो आए उसे ही सत्य माननेवाला भ्रान्त नहीं कहलाएगा तो दूसरा कौन कहलाएगा? ऐसे भूले भटके अनेक हैं जो आज भी दिशाभ्रान्त, दिग्मूढ, किंकर्तव्यमूढ होकर घूम रहे हैं, भटक रहे हैं। क्या ये सच्चे योगी-साधक-ध्यानी कहला सकते हैं ? अरे ! ध्यान में जाने के लिए प्राथमिक प्रकिया के रूप में भी जो जपादि सहायक है, चित्त की निर्मलता के लिए जो षडावश्यकादि उपयोगी है, सामायिकादि समताभाव के लिए सहयोगी है, परमात्मा के प्रति पूज्यभाव - अहोभाववर्धक जो पूजा पद्धति है ... बस इस सबको छुडाकर ध्यान में बैठाना यह कहाँ तक उचित होगा? बीज के लिए भी हवा - पानी - प्रकाश - जमीन - खाद आदि सहयोगी है उनके बिना बीज कैसे पनपेगा ? सहयोगी कारणों की भी काफी आवश्यकता अनिवार्य रूप से होती ही है। सब कुछ छुडा देना तो बहुत आसान है, परन्तु सही अर्थ में उनका उपयोग कराना बहुत ही कठिन है । ९०२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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