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________________ नहीं कर पाता है । इस तरह दोनों को छोड देने के कारण “इतोभ्रष्टस्ततोभ्रष्ट"-उभयभ्रष्ट बन जाता है। परिणामस्वरूप कोरा रह जाता है। कुछ भी नहीं साध सकता है। षडावश्यक–प्रतिक्रमणादि को वह रुक्ष-क्रियाकांडरूप मानता है। औरों की बातों में फसकर सुधारक बनने के अहंकार भाव में प्रमत्त गुणस्थान तक जो स्वगृही क्रिया थी उसे भी छोड बैठता है । और दूसरी तरफ मन निर्विकल्प होता नहीं है । बस, कल्पना की उडा भरता हुआ शेखचिल्ली की तरह दिवास्वप्न देखता रहता है । वर्तमानकालिक नाटक आज के वर्तमान काल में ध्यान की हवा चली है । मानों लोगों की भूख जागृत हुई है । परन्तु अफसोस इस बात का है कि जब भूख लगी है तब कोई सही सच्चा योगी-ध्यानी नहीं मिल रहा है, जो आत्मार्थी हो और आध्यात्मिक ध्यान साधना सिखाए तथा कर्मक्षय-निर्जरा करते हुए मोक्ष की तरफ अग्रसर करे । ऐसे योगियों-ध्यानियों का जब अभाव है तब साधक की भूख जगी हुई भी कितनी कामयाब होगी? '' आज सेंकडों दुकानें खुल गई हैं योग और ध्यान के नाम की। कई दुकानों के मालिक दावा कर रहे हैं- हमारा माल अच्छा है, ऊँचा है । कोई कहता है हम राजयोग सिखाते हैं। कोई कहता है हम पूर्णयोग सिखाते हैं। किसी का कहना है कि ध्यान तो बिल्कुल सहज-आसान है, हमारे यहाँ सहज ध्यान सिखाया जाता है । किसी ने कहने में कोई कमी नहीं रखी है। अरे ! यहाँ तक कह रहे हैं कि.. भूतकाल में जिन भगवानों ने वर्षों तक सही ध्यान साधना करके भी जो केवलज्ञान पाकर वीतरागभाव से जगत् को सिखाया, समझाया और दिया है उसे भी मत मानों । शास्त्रों-ग्रन्थों को भी मत पढो, मत मानों, उसमें लिखे अनुसार भी मत चलो। सिर्फ अपनी अनुभूति के स्तर पर जो आता है उसे ही सही मानो । वही सच्चिदानन्द है, वही परमानन्द है । वही चरम सत्य है । . सोचिए . . . साधक के साथ कितनी खिलवाड हो रही है। जैसे कोई . डॉक्टर-चिकित्सक यदि किसी मरीज के साथ खिलवाड करे तो दर्दी को जिन्दगी से हाथ धोने पडते हैं । वह खिलवाड उसे मौत के मुँह में धकेल देगी। ठीक उसी तरह ऐसी भ्रामक और भ्रान्त विचारधारा से यदि कोई बन बैठा, तथाकथित योगी या ध्यानी साधक से खिलवाड करेगा तो वह उसकी पूरी जिन्दगी पानी में घोल देगा। दिशा भटका देगा। ऐसी भ्रान्त स्थिति का क्या करना? कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना" ९०१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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