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इरियावही-ऐर्यापथिकी क्रिया करने के पश्चात् उत्तरीकरण की क्रिया में.. लगे हुए पाप-दोषों का प्रायश्चित्तकरण करना है । प्रायश्चित्त पश्चात्तापपूर्वक होता है । इस करण से विशुद्धि होती है । पापादि से कर्मरूपी मैल जो आत्मप्रदेशों में आया और इससे जो आत्मा मलिन हो जाती है, इस मलिनता से अशुद्धि आ जाती है । इस अशुद्धि को हटाते हुए अब आत्मा को पुनः शुद्ध करना है । अतः विसोही-अर्थात् विशुद्धिकरण की क्रिया करनी है। इसके पश्चात् शल्यरहित बनने की क्रिया को विसल्लीकरण की प्रक्रिया बताई है । बस, प्रायश्चित्तकरण, विशुद्धिकरण तथा शल्यरहित-विसल्लीकरण की इन तीनों करणों की क्रियाओं से परिणामरूप में पापकर्मों का निर्घातन = नाश होता है । पापकर्मों से छुटकारा होता है । बचाव होता है।
अतः प्रमादग्रस्त जीवों के लिए षडावश्यक की क्रिया हेय नही उपादेय ही है। आचरणीय ही है। उभयभ्रष्ट कदाग्रही
एक सामान्य दृष्टान्त से यह बात समझी जा सकती है कि- एक झोपडीनिवासी सामान्य दरिद्र व्यक्ति को चक्रवर्ति ने आमंत्रण देकर भोजन के लिए बुलाया। और चक्रवर्ति जैसा मधुर मिष्टान्न का ३२ भोजन ३३ पक्वान्न का आहार करता है वैसे गरिष्ठ मिष्टान्न का उसे भोजन कराया। दरिद्र बिचारा दूसरे दिन स्वगृह लौट आया। अब पुनः अपनी स्थिति अनुसार स्वगृह का रूखा-सूखा भोजन करना पडता है । उसमें उसका मन नहीं लगता है । रुचि ही नहीं रहती। बस, बार-बार चक्रवर्ती का मिष्ट भोजन ही याद आता है। परिणाम स्वरूप अपना सादा रूखा-सूखा भोजन वह करता नहीं है, और चक्रवर्ती का मिष्ट भोजन मिलता नहीं है। ऐसी स्थिती में दोनों प्रकार के भोजन से वंचित रहता हुआ सूखा जा रहा है। दोनों तरफ से भ्रष्ट हो रहा है । ठीक इसी तरह क्वचित्-कदाचित् अंशमात्र भी निरालंबन ध्यान की समाधि के अमृतानन्द को चखनेवाला साधक . प्रमादाधीन–कर्माधीन होने के बाद भी निरंतर उस ध्यानानन्द के रसास्वाद की अनुभूति के लिए उत्कंठा रखता है । परन्तु षडावश्यक प्रतिक्रमणादि की शुभ अनुष्ठान की क्रिया को भी नहीं करता है। उसे भी कदाग्रह-हठाग्रहवश छोड बैठा है । और दूसरी तरफ सौभाग्यवश कदाचित्-क्वचित् अंशमात्र भी प्राप्त हुए ध्यानानन्द की शेखचिल्ली की तरह अभिलाषा करता है । जबकि प्रमादाधीन होकर बैठा है । एक तरफ अप्रमत्त भी नहीं बन पाता है और दूसरी तरफ प्रतिक्रमणादि षडावश्यक की शुभानुष्ठान की साधना भी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा