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पहुँचे हुए श्रमण बने हुए साधु-संत या बन बैठे हुए साधक भी यदि ध्यान करने की कक्षा तक पहुँचे हैं और वे भी यदि शुभ अनुष्ठान रूप षडावश्यक रूप प्रतिक्रमणादि का भी निषेध कर देते हैं और न करे तो यह कितना गलत है। इसका ख्याल वे क्यों नहीं करतें है ?
आखिर प्रतिक्रमण क्या है ? जो अतिक्रमण नहीं करना था और वह यदि हो चुका है तो उस अतिक्रमण से जीव को वापिस स्वस्थान में लाकर स्थिर करना इसी का नाम प्रतिक्रमण है । उदाहरणार्थ चलती हुई गाडी यदि तेज गती से भागते हुए अपने मुडने के गाँव के रास्ते को भूलकर- छोडकर अतिक्रान्त हो जाय, अतिक्रमण कर जाय और फिर काफी आगे चली जाने के पश्चात् यदि उसे याद आए कि अरे... अरे गन्तव्य स्थान तो पीछे ही रह गया है । तो पुनः उसे सोच-समझकर रुककर पुनः पीछे लौटना पडेगा । मुडना ही पडेगा । बस, इन वापिस पीछे लौटते हुए स्वस्थान तक या पर पहुँचना ही प्रतिक्रमण है । यह शुभानुष्ठान है। इसका अभाव या इस पर अप्रीति नहीं होनी चाहिए । अरे ! गाडी यदि आगे चली गई है और अब पीछे लौटने की बात आई तब व्यक्ति यदि अपने मन में अभिमान-अहंकार ही करता रहे और पीछे न लौटे तो क्या होगा ? क्या स्वस्थान पर आना गलत है ? जी नहीं ? प्रतिक्रमण तो अतिक्रमित स्थान से जीव को पुनः स्वस्थान पर लाता है
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दूसरी तरफ यह भी सोचिए कि जब तक प्रमादग्रस्तता है तब तक दोषों की संभावना भी काफी ज्यादा है । साधना के क्षेत्र में आरूढ साधक को आखिर और कौन दोष लगाएगा ? प्रमाद ही बलिष्ठ हेतु है । और दूसरी तरफ प्रमाद क्या है ? यह कषाय- अविरति आदि का सम्मिलित रूप है । इसमें अविरतिजन्य पापादि का भी संचय है । और कारणभूत क्रोधादि कषायों का सम्मिलित रूप है । अतः दोनों के संयुक्त स्वरूप का नामकरण प्रमाद शब्द से किया गया है । " प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा” तत्त्वार्थकार ने प्रमाद को हिंसादि पापों का भी मूलभूत कारण गिना है । अतः प्रमाद यदि पापों का भी सेवन कराता है तो फिर उन पापों से पुनः लौटने के लिए जीव को प्रतिक्रमण करना ही एकमात्र उपाय है ।
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तस्स उत्तरी सूत्र के शब्द इस हार्द को स्पष्ट करते हैं
तस्स उत्तरी करणेणं, पायच्छित्त करणेणं,
विसोहि करणेणं, विसल्ली करणेणं,
पावाणं कम्माणं निग्धायणट्ठाए... ठामि काउस्सग्गं ॥ १ ॥
कर्मक्षय - "संसार की सर्वोत्तम साधना"
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