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________________ यदि आ चुकी है, गिर चुकी है तो फिर घुलकर एकरस बनने में कितना समय लगेगा? वैसी ही स्थिति यहाँ पर भी है। गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थ में पू. आ. श्री रलशेखरसूरि म इस श्लोक से इंगित करते हैं कि .. आज के इस वर्तमान काल में जबकि चौथे गुणस्थान का अर्थात् सम्यम् दर्शन-सच्ची श्रद्धा का भी कोई ठिकाना ही नहीं है, ऐसे कई लोग सालंबन का भी विरोध करते हैं, जिन प्रतिमा, जिन मंदिर, अरे ! कोई तो जिनागम का भी विरोध करते हैं और निरालंबन ध्यान की ऊँची बातें करते हैं । इससे कितना विरोधाभासी वक्तव्य लगता है ? इसलिए श्लोककार तो स्पष्ट शब्दों में साफ कहते हैं कि वे जैनागमों को जानते तक नहीं हैं, सर्वज्ञ के तत्त्व को पहचानते तक नहीं हैं, अतः वे मिथ्यात्वग्रस्त होकर “इतो भ्रष्ट-ततो भ्रष्ट" की हालतवाले बन जाएंगे। कुछ लोग आलंबन सहायक प्रतिमादि का विरोध करके आत्म स्वरूप चिंतन-ध्यान की लम्बी बातें करते हैं । यह मेल कहीं और कभी मिलता ही नहीं है। ऐसे निरालंबन ध्यान का दंभ करते हैं। कहते हैं कि जब निरालंबन ध्यान का स्वरूप शास्त्रकार स्वयं बताते ही हैं तो फिर किसी भी प्रकार के आलंबन की आवश्यकता ही क्या है ? जिन मूर्ति आदि का आलंबन लेना ही क्यों चाहिए? निरर्थक है । और दूसरी तरफ जब निरालंबन जैसे ऊँची कक्षा के ध्यान में हम स्थिर रहते हैं तो फिर षडावश्यकादि की क्रिया विधि की आवश्यकता ही क्या है? लेकिन सच देखा जाय तो यह शुभ क्रिया के प्रति अभाव देखा जाता है । यहाँ चोर भंग होते हैं। चारों का विचार इस प्रकार है १) शुभ क्रिया के प्रति सद्भाव। २) शुभ क्रिया के प्रति अभाव। ३) अशुभ क्रिया के प्रति सद्भाव। ४) अशुभ क्रिया के प्रति अभाव। इन चारों में से अशुभ क्रिया का अभाव तो सदा काल होना ही चाहिए, यह तो अच्छा ही है । पापारंभ की क्रिया तो अशुभ क्रिया ही है अतः इसके प्रति अभाव होना ही चाहिए । ठीक इसके विपरीत पापारंभ की जो अशुभ क्रिया है उसके प्रति सद्भाव रखनेवाले पापिष्ट, दुर्जन जीव भी संसार में बहुत है । स्वभावगत दुष्टता-दुर्जनता का क्या उपाय है? उसे पापारंभ की अशुभ क्रिया भी पसंद आती है, उसका क्या किया जाय? शुभ क्रिया का भी अभाव क्यों होना चाहिए? जी हाँ, कुछ ऐसे भी जीव हैं जो शुभ क्रिया का भी अभाव रखते हैं । अरे ! औरों की तो बात ही कहाँ रही? छ8 गुणस्थान पर ८९८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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