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अस्तित्वानोकषायाणामवार्तस्यैव मुख्यता।
आजाद्यालंबनोपेत-धर्मध्यानस्य गौणता . प्रमत्त गुणस्थान की स्थिति
मिथ्यात्व, अविरति आदि बंध हेतु के अभाव में अब छठे गुणस्थान पर कषायों की प्रधानता ज्यादा रहती है। पहले भी यह कह चुके हैं कि १ से लगाकर १२ वे गुणस्थान तक ८ कर्मों में से मोहनीय कर्म की ही प्रवृत्ति ज्यादा है। अतः साधक को पूरा ध्यान मोहनीय कर्म पर ही केन्द्रित करना है । मोहनीय कर्म बडा ही खतरनाक है । सबसे ज्यादा घातक-आत्मघातक कर्म कोई हो तो एकमात्र मोहनीय कर्म है । इस मोहनीय में भी क्रमशः ४ विभाग मुख्य हैं।
४. वेद मोहनीय ३ = २८ ___३. हास्यादि ६ +
२. मूल कषाय १६ + १.मिध्यात्व | ३ +
वैसे मोहनीय कर्म के ये ४ विभाग मुख्य हैं । इन चारों के क्रमशः ४ सोपान हैं। यहाँ दर्शाये गए इन ४ सोपानों का हेतु भी यह है कि गुणस्थानों पर चढते क्रम के सोपानों पर इनका क्षय भी क्रमशः होता है । प्रथम मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षय होता है । वह प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान पर रहता है। दूसरे नंबर पर मूल कषाय की बारी आती है। इनमें १६ जो मूल कषाय हैं उनमें ४-४ की जोडी है- क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण । ये अनन्तानुबंधी आदि के विभाग से ४ प्रकार के हैं। पहले से ४ थे गुणस्थान पर जाते हुए प्रथम अनन्तानुबंधी आदि के ४ कषाय जाते हैं। फिर दूसरे ४ का ग्रूप चौथे से ५ वे गुणस्थान पर जाते हुए, तथा तीसरे ४ का ग्रुप ५ वे से छठे गुणस्थान पर आते हुए जाते हैं। बस छट्टे से १० वें गुणस्थान पर्यन्त अन्तिम ४ संज्वलन कषायों का कार्यक्षेत्र रहता है । क्रमशः उनका भी नाशकार्य आगे बढता है । इन कषायों नोकषायों आदि के कारण छ8 गुणस्थान पर जीव प्रमत्त कहलाता है । ९ वे अनिवृत्ति बादर गुण. पर अन्तिम क्रोध, मान और माया ये ३ कषाय संज्वलन की कक्षा के भी नष्ट कर दिये जाते हैं । अब बचा सिर्फ एक लोभ । उसमें भी स्थूल लोभ का अन्त तो ९ वे गुणस्थान पर ही कर देता
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आध्यात्मिक विकास यात्रा