SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है लेकिन सूक्ष्म प्रकार का लोभ अवशिष्ट रहता है । जिसकी स्थिति १० वे गुणस्थान पर बनी रहती है । आखिर १० वे पर उसका भी अन्त लाता है क्षपकश्रेणी पर आरूढ जीव। यह तो हुई मूल कषायों की बात । लेकिन इनके सहायक जो नोकषाय हैं उनका प्रश्न भी तो काफी बड़ा है । नो शब्द यहाँ सहायक अर्थ में है। गौण कषाय है । मुख्य कलहकारक तो मूल क्रोधादि कषाय है । लेकिन इनको लडाने भडकाने झगडानेवाले निमित्तभूत कषाय नोकषाय हैं । नोकषायों में दोनों प्रकार की विवक्षा है । एक ६ की और दूसरी ९ की । हास्यादि षट्क जब कहा जाता है तब १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. भय, ५. शोक और ६. जुगुप्सा इन ६ का नंबर आता है। इनकी गणना रहती है। और ३ वेद अलग से स्वतंत्र रहते हैं । इस तरह नोकषाय के २ विभाग बन जाते हैं । लेकिन छोटे-छोटे गिने जानेवाले ये सभी नोकषाय नौंवे गुणस्थान तक अपना अस्तित्व रखते हैं। जबकि साधु तो छठे गुणस्थान पर बना है, तो निश्चित ही यह सिद्ध हो जाता है कि...संज्वलन के ४ क्रोधादि कषाय तथा नोकषाय के ९ ये सभी कर्म के प्रकार साधु पर भी हावी है ही। उदय में है ही । जब उदय में है तो तो फिर ये कर्म भी अपना जोर तो निश्चित रूप से करेंगे ही । अब साधु अपनी स्वभावरमणता के उपयोग में ध्यानादि में जितना ज्यादा स्थिर रहेगा उतनी असर कम दिखाई देगी। और जितना कम ध्यानादि में स्थिर रहेगा उतनी उन कर्मों की असर ज्यादा रहेगी। इस तरह कर्म और धर्म के बीच में संघर्ष बडा भारी है। फिर वापिस प्रमादग्रस्तता की स्थिति छठे गुणस्थान पर है। एक तरफ तो कषायादिजन्य प्रमादग्रस्तता छठे गुणस्थान पर है ही और दूसरी तरफ यदि उसे ध्यानादि करना हो तो बहुत मुश्किल है। जैसे सूर्य हो तो रात नहीं होती है, और जैसे रात हो तो सूर्य भी नहीं रहता । ठीक इसी तरह रात की तरह प्रमाद होने पर सूर्यरूपी ध्यान नहीं रहता है । इस तरह ध्यान की स्थिरता आ जाय तो प्रमाद नहीं रहता है । क्योंकि प्रमाद और ध्यान परस्पर एक दूसरे के विरोधी हैं । अतः एकसाथ कैसे रहेंगे? प्रमाद में कषाय के क्रोधादि तत्त्व हो या नोकषाय के हास्यादि का उदय हो या फिर वेद मोहनीय के स्त्रीवेद.आदि वासना-विकारों के विचारों को ही भर देंगे तो अनर्थकारी परिणाम आएगा । ध्यान संभव ही नहीं रहेगा। क्योंकि क्रोधादि, हास्यादि, तथा वांसना विकारादि ध्यान के संपूर्ण विरोधी हैं। ध्यान में प्रवेश ही नहीं होने देंगे। बात भी सही है- जब वासना और विकारों में मन भटकता ही रहेगा, तब कामसंज्ञा की मानसिक विचारधारा में ही मन विचार करता रहेगा तो ध्यान की धारा कैसे लगेगी? जैसे एकसाथ रात और सूर्य रह ही नहीं सकते हैं ठीक वैसे ही ध्यान और प्रमाद साथ रह कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना" ८९५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy