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________________ जी हाँ,... इसका सीधा उत्तर इतना ही है कि...यह संसार विषय, कषाय, अविरति और प्रमादादि से भरा हुआ है । संसार में रहकर इनसे बचना नामुमकिन है। चाहे आप कितने भी ज्ञानी हो, लेकिन संसार के व्यवहार में आप क्या करेंगे? कैसे बचेंगे? बच्चे, पनि, पुत्र-पौत्रादि के निमित्त के कारण कैसा व्यवहार होगा? और करना पडेगा? कर्मबंध, आश्रव, तथा बंधहेतुओं से बचना संसार में किसी भी स्थिति में संभव ही नहीं दूसरी तरफ ८ मद, विषय, वासना, निद्रा, विकथा तथा कषायादि सब प्रकार के प्रमादों से भी बचना संभव नहीं लगता है । बस, ऐसे प्रमादों के सेवन के कारण मुनि छठे गुणस्थान पर प्रमत्त साधु (प्रमादि) कहलाता है । अतः एक बात पुनः निश्चित और स्पष्ट हो जाती है कि अप्रमत्त बनना हो उसे प्रमाद के ये सभी विषय छोडने ही चाहिए । बिना इनके छोडे कोई अप्रमत्त बन ही नहीं सकता है। सातवें गुणस्थान पर अप्रमत्तता बिल्कुल आध्यात्मिक है। ठीक प्रमादभाव के विपरीत अप्रमत्तभाव है। मनि बनते समय संसार भाव का त्याग करते हुए प्रथम अवतादि का त्याग किया है। अव्रतादि में हिंसा, झठ, चोरी आदि जितने भी पापकर्म थे उन सबका त्याग करके साधक साधु बना है। अतः महाव्रत स्वीकार किये हैं। व्रत से विपरीत शब्द अव्रज-अविरति है। इसमें प्रयुक्त 'अ' अक्षर निषेधार्थक है। इसी तरह अविरति शब्द में भी प्रयुक्त 'अ' अक्षर निषेधवाचक है । विरति का ही सर्वथा निषेध-त्याग हो जाता है । अविरति-अव्रत का सीधा अर्थ ही पाप व्यापार से संबंधित है । इन अव्रतों का सर्वथा संपूर्ण रूप से समूल त्याग करके साधु महाव्रत स्वीकार करता है। इन अव्रतों की पापकारिता इतनी ज्यादा थी कि वे भारी कर्म उपार्जन कराते थे। ठीक इसके विपरीत साधु ने व्रत लेते समय ऐसी महानता रखी है कि.. व्रतों के बजाय वह महाव्रत लेता है । 'महा' शब्द व्यापक विशाल अर्थ वाचक है । अतः किसी भी तरफ से किसी भी प्रकार के पाप व्यापार की अंशमात्र भी छुट नहीं रखी है। अतः तनिक भी पाप तो सेवन करना ही नहीं है । फिर प्रश्न ही कहाँ है ? इस तरह अविरति का आश्रव बंध आदि छूट गया है। __. इस तरह बाह्य निमित्तक पापों से तो साधु निवृत्त हो गया है । लेकिन आभ्यन्तर कक्षा के कषाय और योगज़न्य पाप बचे हैं । ये प्रायः आन्तरिक हैं । मन संबंधि प्रमाण में ज्यादा हैं। शेष कम हैं । इसलिए छठे प्रमत्त गुणस्थान की स्थिति बताते हुए गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार महर्षि रत्नशेखर सूरि म. लिखते हैं कि कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना" ८९३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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