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________________ अंगीकार ही कर ली है तो फिर पहले की अविरति भी चली जाती है । और अविरतिजन्य जो पापकर्मों का बंध होता था वह भी अब नहीं होगा। ऐसा ही पहले मिथ्यात्व के बारे में भी समझना चाहिए । अब छठे गुणस्थान पर आरूढ होने के पश्चात् प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बंध हेतु ज्यादा कर्म बंधाने में सहायक हैं। इसलिए छठे गुणस्थानवर्ती साधक को संज्वलन के ४ मुख्य कषाय ही कर्मबंध के प्रमुख कारण बनते हैं। प्रमाद का भी सबसे बड़ा कारण ये ४ कषाय हैं । यद्यपि १६ कषायों में से ४ अनन्तानुबंधी के क्रोधादि तो पहले गुणस्थान से ४ थे पर आने में ही चले गए। दूसरे अप्रत्याख्यानीय के ४ क्रोधादि कषाय चौथे सम्यक्त्व के गणस्थान से ५ वे देशविरति गुणस्थान पर आते ही चले गए। और तीसरे ४ प्रत्याख्यानीय क्रोधादि कषाय वे भी ५ वे से छटे प्रमत्त गुणस्थान पर आते ही चले गए। इस तरह १६ में से १२ प्रकार. के कषायों का अपगम करके साधक जीव छठे गुणस्थान पर आकर साधु बना है । इस तरह गृहस्थाश्रम से निकलकर संसार त्याग करके साधु बनने के पहले ही १६ में से १२ कषायों का नाश हो जाता है और वह जीव कषायजन्य अनेक पापकर्मों के बंधन, संबंध से बचता है । छठे गुणस्थानवर्ती साधक को अब साधु बनने के बाद सिर्फ ४ कषायों के साथ ही संघर्ष खेलना है और वे भी साधक के हाथ में है। ये संज्वलन कषाय तो वैसे भी थोडी अवधि के ही हैं। इनका ज्यादा से ज्यादा जोर १५ दिन का रहता है। बस, इतनी ही इनकी काल अवधि रहती है । ये बिचारे है तो कमजोर फिर भी एक छोटे से कांटे की तरह-पैर में लगे शल्य की तरह खतरनाक रहते हैं। आगे के गुणस्थान पर गमन करने के मार्ग को ही अवरुद्ध कर देते हैं । फिर आगे विकास कैसे होगा? और इन ४ संज्वलन कषायों की प्राधान्यता के कारण ही जीव प्रमादि कहलाता है। जब प्रमाद छोडना है और आगे बढना ही है तो फिर कषायों से दोस्ती कैसी? जब संसार ही छोड दिया है,संसार से महाभिनिष्क्रमण कर दिया है तो फिर प्रमाद और कषायादि का भी आलम्बन क्यों लेना चाहिए? आखिर भगवान महावीर ने संसार छोडने के लिए क्यों कहा? क्या गृहस्थाश्रम में रहकर आध्यात्मिक विकास संभव नहीं था? जी हाँ, आप थोडा और गौर से सोचिए, जब तीर्थंकर परमात्मा ने स्वयं भी इस और ऐसे संसार से यौवनकाल में ही महाभिनिष्क्रमण किया । त्यागकर निकल पडे साधुता की राह पर । जो जन्मजात अरे ! गर्भकाल से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञान से परिपूर्ण संपूर्ण थे तो फिर क्या आवश्यकता थी संसार छोडने की? क्यों छोडा? ८९२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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