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ये उपरोक्त भंग संख्या तो एक-एक गुणस्थानवर्ती एक-एक जीव आश्रयी दर्शायी है । परन्तु सब मिलकर १४ गुणस्थानों के ४७१३०१० भंग होते हैं । इस तरह कर्मबंध के मूलभूत हेतु तथा उत्तर हेतुओं तथा उत्तर हेतुओं के भंगों की संख्या यहाँ दर्शायी गई है। गुणस्थानों पर प्रकृति बंध
अपमत्तंता सत्तट्ठ मीस-अपुव्व-बायरा सत्त। बंधइ छ-सुहुमो एगमुवरिमा बंधगाजोगी
॥ ४/५९॥ बंध तत्त्व जो ४ प्रकार का बताया है उसमें १. प्रकृति बंध, २. रस बंध, ३. प्रदेश बंध और ४. स्थितिबंध के भेद गिने जाते हैं । ऊपर जैसे बंधहेतुओं द्वारा जो कर्मबंध के प्रकार . बनते हैं वे दर्शाए हैं, उन तथाप्रकार के बंधहेतुओं द्वारा जीव जिन कर्मों को बांधता है उनमें प्रकृति बंध भी विभाजित होता है । वैसे प्रकृति शब्द यहाँ पर स्वभाव अर्थ में है । आत्मा का मूलभूत स्वभाव अपने ज्ञानादि गुणात्मक है। परन्तु बंधहेतुओं के आचरण से जिस कामण वर्गणा का आश्रवण (आगमन) हुआ है उसके आधार पर वे आत्मा के साथ बंधकर एकरस होकर आत्मसात हो जाते हैं, तब आत्मगुणों पर उस जडकर्म का एक प्रतर बन जाता है। जो आवरण रूप में आच्छादक बनकर आत्मगुणों को ढक देता है। उसे प्रकृतिबंध कहते हैं। जैसे सूर्य को बादल ढक देते हैं । स्वभाव से ही प्रकाशक द्योतक ऐसे सूर्य को ढककर बादल अब सूर्य के प्रकाश को फैलने नहीं देते हैं, परन्तु अब अपने स्वभाव के अनुसार अन्धेरा फैला देते हैं । परिणाम स्वरूप में दिन में सूर्य होते हुए भी अन्धेरा छाया हुआ लगता है।
ठीक इसी तरह आत्मा भी अपने स्वभाव में स्थिर नहीं रह पाती है और अपने ज्ञान-दर्शनादि गुणों को प्रकट नहीं कर पाती है । बस, अब बंधे हुए कर्म के भार से दबी हुई आत्मा कर्मस्वभाव के अधीन होकर अपने ज्ञानादि को प्रकाशित करने के बजाय कर्म के स्वभावरूप अज्ञानादि को प्रकट करती है । यह प्रकृति स्वभावाबंध है । इससे जीव की अपनी प्रकृति के बदले कर्म की प्रकृति बन जाती है। ___ प्रस्तुत अधिकार में १४ गुणस्थानों के सोपानों पर स्थित किस गुणस्थान पर किस जीव को कितने कर्मों का प्रकृतिबंध होता है उसका विवरण चतुर्थ कर्मग्रन्थकार ने इस तरह किया है । (प्रकृतिबंध में मूल ८ प्रकृतियाँ बंधती हैं । अतः ८ प्रकार के मुख्य कर्म कहलाते हैं। और इन आठों कर्मों के अवान्तर भेद १५८ होते हैं ।)
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आध्यात्मिक विकास यात्रा