________________
पणपनपन्ना तिअछहिअ, चत्त गुण चत्त, छ-चउ-दुग-वीसा।
सोलस-दस-नव-नव-सत्त-हेउणो-न उ अजोगिभि ॥४/५४॥ चौथे कर्मग्रंथ की इस ५४ वीं गाथा के आधार पर ऊपर टेबल में बंधहेतुओं के उत्तर भेदों की संख्या सूचित की गई हैं । अन्त में १४ वे गुणस्थान पर अयोगी को किसी भी प्रकार का बंधहेतु नहीं होता है । बंधहेतु के अभाव में कर्म बंध होता ही नहीं है । परन्तु इसके पूर्व गुणस्थानों पर कर्मबंध के इतने हेतु इतनी संख्या में रहते हैं । अतः पुनः कर्म का बंध तो होता ही रहता है । यह जरूर कह सकते हैं कि पूर्व-पूर्व गुणस्थानों पर बंधहेतु भी ज्यादा प्रमाण में रहते हैं । अतः कर्मबंध भी ज्यादा होता है । तथा उत्तर-उत्तर के ऊपर चढने के गुणस्थान शुद्धियों से भरे हुए होने के कारण बंधहेतुओं की संख्या बहुत ही ज्यादा अल्पतर रहती है अतः कर्म का बंध भी बिल्कुल कम ही रहेगा। बंध हेतुओं के गुणस्थानों पर विस्तृत भंग
उपरोक्त उत्तर भेदवाले बंधहेतुओं की संख्या जो दर्शायी गई है, उनका परस्पर गुणाकारादि,करने पर एक एक गुणस्थानवर्ती आश्रयी जीव के बंध हेतुओं के भंगों की संख्या काफी ज्यादा होती है इतना लम्बा विस्तार यहाँ न करते हुए तालिका द्वारा प्रत्येक गुणस्थानों पर किस जीव के कितने भंग होते हैं यह दर्शाया गया है
गुणस्थान पर बंध हेतु के एक जीव आश्रयी विकल्प के भंगों का यन्त्र गुणस्थान
ओघ बंधहेतु बंधहेतु. सर्व विकल्पों उत्तरभेद विकल्प
के भंग १. मिथ्यात्व गुण .
३४७७६०० २. सास्वादन गुण
३८६०४० ३. मिश्र गुण
२०३४०० ४. अविरत स.गुण
३८३०४० ५. देशविरत गुण
१६३६८० ६. प्रमत्त वि.गुण
११८४ ७. अप्रमत्त वि.गुण
१०२४ ८. अपूर्वकरण गुण
८६४ ९. अनिवृत्ति गुण १०. सूक्ष्म संपराय गुण . ११. उपशांत मोह गुण . ९ १२. क्षीण मोह गुण १३. सयोगी केवली
५५
१४४
कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना"