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३ रे मिश्र गुणस्थान पर पूर्वोक्त ९ योग जो हैं उसमें वैक्रिय काय योग जोडने पर १० योग होते हैं । वैक्रियवंत जीव को मिश्र गुणस्थान होता है । परन्तु मिश्र गुणस्थान पर वैक्रिय प्रारंभ नहीं करता है इसलिए वैक्रिय मिश्र योग नहीं होता है । देशविरति ५ वे गुणस्थान पर पूर्वोक्त ९ योग, वैक्रिय द्विक- २ सहित हो तो ११ योग कहलाते हैं।
६ढे प्रमत्त गुणस्थान पर पूर्वोक्त ११ योग, आहारक द्विक सहित हो तो १३ योग होते हैं । यहाँ आहारक शरीर बनाता है इसलिए।
७ वे अप्रमत्त गुणस्थान पर पूर्वोक्त १३ योग में से वैक्रिय मिश्र और आहारक मिश्र ये २ योग न होने पर ११ योग रहते हैं। वैक्रिय आहारक करके ७ वे गुणस्थान पर आए तो रहते हैं परन्तु अप्रमत्त जीव वैक्रिय, आहारक नहीं करता है, और न ही छोडता है । अतः. दोनों मिश्रयोग नहीं होते हैं। सयोगी को १३ वे गुस्सस्थान पर १ कार्मण काययोग, २ औदारिक मिश्र, ३. औदारिक, तथा मन-वचन के प्रथम और चरम ४ योग इस तरह कुल ४ योग होते हैं। क्योंकि औदारिक मिश्र तथा कार्मण ये २ केवली समुद्घात के समय होते हैं । मन वचन के ४ तो सहज होते हैं । इस तरह सयोगी को ७ योग होते हैं । १४ वे अयोगी गुणस्थान पर योग निरोध होता है । अतः योग न होने पर अयोगी कहलाते हैं। __ प्रस्तुत विषय यहाँ बंध हेतु का चल रहा है । अतः विस्तार रूप से कर्मग्रन्थकार की दृष्टि से मुख्य ४ प्रकार के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, और योग के अवान्तर भेद कुल ५ + १२ + २५ + १५ = कुल ५७ भेद होते हैं। इन ५७ प्रकार के बंध हेतुओं के द्वारा कहाँ किस-किस गुणस्थान पर कितनी संख्या में अवान्तर भेद युक्त बंध हेतु होते हैं उनका निम्न तालिका से स्पष्टीकरण किया गया है । (उपरोक्त५७ भेदों का ख्याल रखकर गुणस्थानों पर उसमें से संख्या लिखी जाती है।) .
-९
मूल बंध हेतु संख्या
१- ११ २- १० -१० ९ -१५
-२९ ।
२- ८
२-
२- ५
६ -३६
-३९ ।
।
२-
- उत्तर बंध हेतु संख्या
४-
१
-५५
आध्यात्मिक विकास यात्रा