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तिर्यंच जीव को वैक्रिय के आरंभकाल में और छोड़ने के समय औदारिक के साथ भी वैक्रिय मिश्र काय योग होता है।
१३) आहारक शरीर योग- १४ पूर्वधारी मुनि जब आहारक शरीर की रचना करते हैं तब यह आहारक काय योग होता है।
१४) मिश्र काय योग-आहारक शरीर के आरंभ तथा अन्त के समय औदारिक के साथ आहारक का मिश्र काय योग होता है।
१५) कार्मण काय योग- जीव जो कार्मण वर्गणा (कर्मरज) के पुद्गल परमाणु ग्रहण करता है तथा उसे आत्मप्रदेशों के साथ एकरसीभाव करके पिण्ड निर्माण करता है वह भी एक शरीर के रूप में व्यवहत होता है । उसे कार्मण शरीर कहते हैं । जो मृत्यु के पश्चात् भी जीव को अन्तराल में अन्य गति में जाते समय आत्मा के साथ जाता है । केवली समुद्घात के समय भी ३,४,५ वे समय होता है । इसे कार्मण शरीर कहा है। तैजस भी एक शरीर ही है लेकिन उसकी विवक्षा इस कार्मण काय योग के अन्तर्गत ही गिनी गई है। इस तरह ये उपरोक्त १५ प्रकार के योग हैं। किस गुणस्थान पर कितने योग होते हैं?
मिच्छ दुगि-अजइ-जोगा, हारदुगुणा अपुव-पणगे-उ। मणवइ-उरलं-सविउ-वि, मीसि-सविउवि-दुग देसे ॥४/४६ ।। साहारग दुग-पमत्ते-ते विउवाहारमीस-विणु इअरे।
कम्मुरल दुगंताइम-मण, वयण-सजोगी-न-अजोगी ॥४/४७ ।। चौथे कर्मग्रन्थ के उपरोक्त दोनों श्लोकों में गुणस्थानों पर इन १५ योगों में से कहाँ कितने योग होते हैं यह निर्देश किया है
१ ले मिथ्यात्व, २ रे सास्वादन और ४ थे अविरत सम्यग्दृष्टि इन ३ गुणस्थानों पर आहारक तथा आहारक मिश्र इन २ योगों के बिना शेष १३ योगों की स्थिति होती ही है।
अपूर्वकरण ८, ९, १०, ११ और १२ वे क्षीणमोह गुणस्थान इन ५ गुणस्थानों पर ४ मन के + ४ वचन के और १ औदारिक काय योग इस तरह नौं ९ योग होते हैं । इन ५ गुणस्थान पर लब्धि का प्रयोग होता ही नहीं है इसलिए वैक्रिय द्विक और आहारक द्विक् के कुल ४ योग नहीं होते हैं । अतः १३ में से ४ जाने पर ९ शेष रहतें हैं । इसी तरह इन ५ गुणस्थान पर समुद्घात की अवस्था भी नहीं होती है इसलिए यहाँ पर औदारिक मिश्रयोग नहीं होता है । तथा कार्मण काय योग तो अंतराल गति में ही होता है।
कर्मक्षय-"संसार की सर्वोत्तम साधना"
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