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१) सत्य मनोयोग - अस्ति जीवः सर्वहितचिंतनादि । सत्यरूप मन ।
२) मृषा मनोयोग - नास्ति जीवः, जीव है ही नहीं । यह असत्य मनोयोग ।
३) सत्यमृषा मनोयोग - दोनों का मिश्र स्वरूप यह तीसरा भेद है। इसमें कुछ अंश सत्य का और कुछ अंश असत्य का ऐसे दोनों मिश्र होते हैं ।
४) असत्यामृषामनोयोग - सत्य भी नहीं, और असत्य भी नहीं ऐसी विचारणा चौथे प्रकार का असत्यामृषा मनोयोग कहलाता है। यहाँ मन से विचार करनेरूप कार्य है । अतः मनोयोग कहा है । इसे प्रयोग करके व्यक्त करना हो तब वचन योग का व्यवहार होता है । यह वचनयोग भी ऊपर की तरह ४ प्रकार का होता है ।
५)
१. सत्य वचन योग - बिल्कुल सत्य बोलना - आत्मा है ।
६) २. असत्य वचन योग- बिल्कुल झूठ-असत्य बोलना - आत्मा नहीं है । ७) ३. सत्यमृषा वचन योग- दोनों का मिश्र स्वरूप यह तीसरा प्रकार है । इसमें कुछ अंश सत्य का और कुछ अंश असत्य का होता है ।
८) ४. असत्या मृषा वचन योग- इसमें सत्य भी नहीं और असत्य भी नहीं है ऐसी भाषा का प्रयोग चौथे प्रकार का वचन योग है। मन के ४ +, वचन के ४ + तथा काययोग के ७ मिलाकर कुल १५ योग हैं।
९) १. औदारिक काय योग- काया का मतलब शरीर से है । मनुष्य और तिर्यंच पशुपक्षी का शरीर यह औदारिक काययोग है अर्थात् आहारादि के उदार पुद्गलों से बना हुआ यह शरीर - औदारिक काय योग है ।
१०) २. औदारिक मिश्र काय योग- मनुष्य या तिर्यंच पशु-पक्षी उत्पत्ति के एक समय पश्चात् शरीर पर्याप्ति पूरी करने तक कार्मण के साथ मिश्रपना यह औदारिक मिश्र काय योग है । केवली समुद्घात में भी २, ६, ७ वे समय में यह होता है ।
११) वैक्रिय काय योग - स्वर्ग के सभी देवता, सातों नरक के सभी नारकी जीव अपना शरीर जो बनाते हैं वह वैक्रिय प्रकार का होता है। इसी तरह लब्धिवंत मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पशु-पक्षी भी वैक्रिय शरीर निर्माण कर सकता है। तथा हवा का शरीर भी वैक्रिय शरीर है ।
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१२) वैक्रिय मिश्र काय योग- उन्हीं देवता तथा नारकी जीवों की उत्पत्ति होते ही कार्मण के साथ वैक्रिय का मिश्रण ही वैक्रिय मिश्र काय योग होता है। मनुष्य और
आध्यात्मिक विकास यात्रा