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प्रकार का अव्रत या अविरतिरूप पाप बताया गया है । ये सभी प्रकार कर्मबंध में हेतुरूप हैं, कारणरूप हैं। कषाय और योग के भेद
नव-सेल-कसाया, पनर-जोग, उत्तरा उ सगवन्ना । कर्मग्रन्थ ४/५२ मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में हास्यादि छः + तथा तीन वेद मिलाकर कुल नौं को नोकषाय की संज्ञा दी गई है । अतः ये मूलभूत कषाय नहीं है लेकिन मूल कषाय क्रोधादि के सहायक कषाय हैं । इस दृष्टि से इन सहायक नौं नोकषायों की गणना भी मूल कषायों के साथ की जाती है। हास्य-भयादि भी मूल क्रोधादि कषायों को जगाने-भडकाने में काफी सहायक निमित्त बनते हैं। अतः ये भी कर्म बंधाने में हेतभत बनकर काम करते हैं।
१६ मूल कषायों में क्रोधादि की विवक्षा निम्न प्रकार से हैं। मुख्य ४- १. क्रोध, २. मान, ३. माया और ४. लोभ । तथा कालिक दृष्टि से विवक्षा करने पर और ४.भेद होते हैं । १. अनन्तानुबंधी, २. अप्रत्याख्यानावरण, ३. प्रत्याख्यानावरण, एवं ४. संज्वलन । इस तरह क्रोधादि चारों इन अनन्तानुबंधी आदि चारों प्रकार के बनने पर ४x ४ = १६ प्रकार के बनेंगे।
१. अनन्तानुबंधी-क्रोध, मान, माया और लोभ = ४ २. अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया और लोभ = ४ ३. प्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया और लोभ = ४
४.. संज्वलन- क्रोध, मान, माया और लोभ = ४ इस तरह कुल १६ प्रकार के कषाय होते हैं। तथा छः हास्यादि + तीन वेद = नौं नोकषाय एवं + १६ मूल कषाय । इस तरह कुल मिलाकर २५ कषाय होते हैं । ये सभी कर्म बंधकारक हैं । तथा बंधहेतुभूत हैं । हास्यादि तथा वेदादि प्रमादान्तर्गत भी समा सकते हैं।
योग १) मन ४ + | २) वचन ४ + | ३) काय ७ =१५
मन, वचन और काया के मूल तीन योग १५ प्रकार के गिने जाते हैं । उनका स्वरूप इस प्रकार है
कर्मक्षय- “संसार की सर्वोत्तम साधना"