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________________ बंधहेतु से तैयार करना है और अन्त में जाकर एकरसीभाव होकर कार्मण वर्गणा के जड पुद्गल परमाणु आत्मप्रदेशों के साथ घुल-मिलकर एकरसीभाव हो जाना बंध कहलाता है। जैसे पानी दूध में मिल जाय, या फिर अग्नि लोहे के गोले में मिलकर एकरसीभाव हो जाय ! अग्नि लोहमय बन जाय, या लोहा अग्निमय तप्त लाल बन जाय, यह बंध है । इस तरह इन तीनों के द्वारा कर्मबंध बनता है । तब जाकर कर्म का व्यवहार होता है । कर्म संज्ञा बनती है। अपेक्षा से बंध तत्त्व के चारों प्रकार का बंध भी इन तीनों का द्योतक बन जाता है। आश्रव के द्वारा प्रदेश बंध की तैयारी होती है। जबकि बंध हेतओं के द्वारा रसबंध की प्रक्रिया होती है । तथा स्थितिबंध की प्रक्रिया होकर बंध तत्त्व की गणना में आता है। अन्त में जाकर प्रकृतिबंध के रूप में बना हुआ कर्म ही अपना स्वभाव (प्रकृति) दिखाता है। आत्मगुणों को दबाकर जड कर्म चेतनात्मा पर भी अपना स्वभाव-अपनारूप दिखाता है। परिणामस्वरूप चेतन ऐसा जीवात्मा भी जड कर्मों से बंधा जड की तरफ खींचा जाता है और जडवत् जडसमान-स्थिति जीव की बनती जाती है। इस तरह जडकर्म चेतन की छाती पर चढ बैठता है तथा चेतन को अपने जड रंग से रंगकर ऐसा रंजित कर देता है कि चेतन जीवात्मा का सारा व्यवहार जड प्रभावी बना देता है । चेतन जीव जडप्रधान बन जाता है । इस तरह जीव ने आश्रव-बंध हेतु और बंध रूप इन कर्मों के बीच में थपेडे खाता-खाता अनादि काल से कर्म के साथ रहते रहते आज दिन तक अनन्त काल बिता दिया। परिणामस्वरूप कर्मसंयोग से दुःखी होता हुआ दुःखमय, दुःखरूप, दुःखफलदायी इस संसार में दिक्मूढ बनकर ८४ के चक्कर में परिभ्रमण करता ही जा रहा है। सर्वथा लक्ष्यहीन स्थिति में दिशाभ्रान्त होकर चारों गति में आवागमन रूप जन्म-मरण करता हुआ काल व्यतीत करता है। ऐसे अनादि-अनन्त संसार में जीव भी अनादि-अनन्तकालीन संसारी बन जाएगा। जबकि जीव स्वास्तित्वरूप से अनादि-अनन्त होते हुए भी संसारके संयोग संबंध से अनादि-सान्त है। अर्थात् भव्यात्मा की संसारी स्थिति अनादि-सान्त है । अन्तसहित को सान्त कहते हैं । संसार में अनन्त काल तक रहना जीव के हित में नहीं है । अत्यन्त दुःखदायी है। दुःखविपाकी, दुःखफलदायी दुःखानुबंधी ऐसे संसार में क्या जीव दुःखमुक्त सर्वथा दुःखरहित हो सकता है ? जी नहीं । कभी नहीं। इसलिए किसी भी तरह जीव को आध्यात्मिक विकास की यात्रा में अग्रसर होते हुए गुणस्थान का एक-एक सोपान चढते चढते आगे प्रगति करनी ही चाहिए। तो ही ८८० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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