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________________ यदि अनादिकालीन प्रवाह की दृष्टि से देखा जाय तो अण्डे-मुर्गी जैसा संबंध इन दोनों में भी दिखाई देगा। पूर्वकाल के कर्मबंध हेतु के कारण आज आश्रव होता है । और आज के आश्रव के कारण भावि के बंध हेतु जागृत होते हैं। इस तरह अन्योन्य कार्य-कारण उभय बनते ही रहते हैं। कभी आश्रव बंध हेतु जगाने में कारण बनता है तो कभी बंध हेतु आश्रव में कारण बनते हैं। इस तरह अण्डे-मुर्गी के जैसा अनादि प्रवाह चल रहा है। हेतु शब्द कारणवाची है । कर्मबंध में कारणरूप मिथ्यात्व-कषायादि हैं । लेकिन बंध के भी सहायक कारणरूप आश्रव है। दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो आश्रव और बंध हेतु परस्पर अभिन्न भी है। कषाय योग अविरति आदि आश्रव में भी गिने गए हैं और बंध हेतु में भी गिने गए हैं । और शेष का एक दूसरे में समावेश हो जाता है । अतः आश्रव और बंध हेतु दोनों अभेद संबंध से एकरूप गिने जा सकते हैं। बंध तत्त्व और बंध हेतु नौ तत्त्वों में बंध तत्त्व की जो गणना की गई है उसमें ४ प्रकार के कर्म बंध गिने हैं। इनमें १. प्रकृति, २. प्रदेश, ३. रस, ४. स्थिति बंध है । अब, यहाँ आश्रव, बंध हेतु तथा बंध इन तीनों को सामने रखकर विचारणा करिए । आश्रव पहले, कामण वर्गणा का आश्रवण = आत्मा में आगमन आकर्षित करता है । फिर दूसरे क्रम पर बंध हेतु परिणाम द्वारा कषायादि भावों से रस सिंचन करता है। और अन्त में तीसरा बंध तत्त्व यह आत्मा के साथ कर्माणुओं को एकरसी भाव करके एकमेव कर देता है । दृष्टान्त के साथ इस तरह समझा जा सकता है कि आश्रव में रोटी बनाने के लिए क्रिया करके आटा आदि लेना, फिर बंध हेतु में उस आटे में रस-परिणाम रूप में घी, या तेल, पानी, निमक, मिर्चादि मसाला डालना आदि है। और अन्त में तीसरी क्रिया जो बंधरूप है उसमें उस रोटी को गोलाकार बनाकर अग्नि पर शेककर कडक कर देना। ठीक इसी तरह आश्रव–बंध हेतु और बंध की प्रक्रिया है । आश्रव में “क्रियाए कर्म" के नियमानुसार कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु जो जड हैं उन्हें इकट्ठे करना, आकृष्ट करके आत्मप्रदेशों तक लाना है । बंध हेतु मिथ्यात्वादि वहाँ अपने शुभाशुभ अध्यवसायों का (परिणामों का निवेश करते हैं। जिसमें घी-तेल की तरह आर्त-रौद्र ध्यान की परिणति, कषाय भाव राग-द्वेषात्मक, तथा शुभ या अशुभ लेश्याओं इन तीनों का संमिश्रण करके आटा (कणक) बांधने की तरह कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना" ८७९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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