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________________ इसी तरह कर्मग्रन्थकार का अनुसरण करनेवाले पंचसंग्रहकार भी इसी मत को लेकर चलते हैं । यहाँ पर प्रमाद को स्वतंत्र न गिनते हुए अविरति में या कषाय में अंतर्भाव किया है। वैसे सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर कषाय भी प्रमादजन्य ही हैं । आत्मा जब स्वभाव रमणता से च्युत हो जाती है तब वह विभावदशा में आकर कषायादि करती है। विभावदशा में आए बिना कषाय नहीं होते हैं और कषायभाव में आए बिना विभावदशा संभव नहीं है। क्रोध, मान, माया, लोभ की परिणति ये चारों कषाय हैं। इनकी प्रवृत्ति में आने पर ही विभावदशा कहलाती है। जबकि समता, क्षमा, नम्रता, सरलता, संतोषादि भाव आत्मा के गुण हैं । अपने इन गुणों की रमणता में लीन रहना स्वभाव रमणता है । अपने ही गुणों में लीन रहना अप्रमत्त भाव है। जबकि स्वगुणरमणतारूप स्वभावदशा से च्युत होना प्रमादभाव है । अतः प्रमादवश ही पतन होता है । और निश्चित रूप से अप्रमत्तभाव से स्वगुणरमणता से ही आत्मिक उत्थान होता है। प्रमाद के भेदों में भी कषाय की गणना की गई है । अतः प्रमाद की गणना इस दृष्टि से कषाय में अंतर्धान करके प्रमाद के बिना ४ प्रकार के बंध हेतु गिने जा सकते हैं । इसी तरह यदि प्रमाद की गणना अविरति में भी की जाय तो विवक्षा से संभव है प्रमाद भी एक प्रकार का संयम = अर्थात् अविरति ही है । अतः इसका अविरति या कषाय में अंतर्भाव संभव है। इसी तरह सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर मिथ्यात्व और अविरति ये दोनों भी कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं लगते हैं। अतः सही सर्थ में संक्षिप्तीकरण की दृष्टि से कषाय और योग ये दो ही सच्चे बंध हेतु ठहरते हैं । शेष सबका अंतर्भाव इन दोनों में हो जाता है। इस तरह समन्वय होने से तत्त्वार्थकार तथा कर्मग्रन्थकारादि में कोई मतभेद प्रदर्शित नहीं होता है । मात्र संख्या की दृष्टि में स्वतंत्र गणना करने पर स्थूल दृष्टि से भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से समन्वय होने पर कोई भेद या मत-मतान्तर नहीं रहते हैं। आश्रव और बंध हेतु में कार्यकारणभाव संबंध उपरोक्त विचारणा से दोनों तत्त्वों में कार्य-कारण भाव,जन्य-जनक भाव का विशेष संबंध दृष्टिगोचर होता है। जैसे बीज और वृक्ष के बीच में कार्य-कारणभाव संबंध है, बीज से वृक्ष की उत्पत्ति होती है। अग्नि से धुएं की उत्पत्ति होती है ।ठीक उसी तरह आश्रव से बंध हेतु की उत्पत्ति होती है । हाँ, आश्रव में इन्द्रियाँ आदि, अविरति आदि बंध हेतु जगाने में सहायक बन जाएंगे। अविरति क्रियादि कषायों को जगाने में कारक निमित्त बन जाएंगे। ८७८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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