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हिंसादि भी क्रियारूप है । योग में मन-वचन-काया की प्रवृत्ति भी क्रिया रूप है । तथा अन्त में प्राणातिपातिकी आदि २५ प्रकार की क्रियाएं हैं। ये सब आश्रव के ४२ प्रकार क्रिया की प्रधानता रूप हैं । अतः नियम का यह प्रथम अंश “क्रियाए कर्म" यह आश्रव सूचक है । जबकि उत्तरार्ध अंश " परिणामे बंध” यह बंधसूचक है । इस अपेक्षा से दोनों को समझना श्रेयस्कर है ।
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पूर्वांश और उत्तरार्ध अंश इन दोनों में कार्य-कारण भाव का संबंध है । क्रिया यह परिणाम में कारणरूप है । अतः आश्रव बंध का कारणरूप है आंश्रव होने के पश्चात् ही बंध होगा । चाहे क्रिया से कितनी भी कार्मण वर्गणा का आश्रवण (आगमन) हो परन्तु बंध तो परिणाम के आधार पर ही पडेगा । अतः यह कहा जा सकता है कि प्रदेशबंध का सहायक आधार क्रियात्मक आश्रव पर रहेगा, जबकि प्रकृति बंध, रस और स्थिति बंध का आधार परिणाम पर रहेगा ।
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कई बार संसार के व्यवहार में जो स्पष्ट देखा जाता है कि क्रियाओं में काफी समानता रहती है । १००, २०० व्यक्ति भी एक समान क्रिया करते हुए दिखाई देंगे। लेकिन सबके अध्यवसाय - परिणाम एक समान एक जैसे सरीखे होने संभव नहीं है । अध्यवसाय सबके भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं । अतः क्रिया की प्राधान्यता कायिक ज्यादा रहती है जबकि परिणाम (अध्यवसायों) की प्राधान्यता मानसिक रहती है । काया स्थूल है । बाहरी व्यवहार में दृष्टिगोचर होती है । अतः तद्जन्य क्रिया भी बाहर के व्यवहार में दिखाई देगी। लेकिन मन सूक्ष्म है । अदृश्य है। अतः मनोगत अध्यवसाय प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । परिणाम दिखाई नहीं देते । क्रिया व्यवहारात्मक है। जबकि हेतु परिणामाधारित है । ये अदृश्य रहते हैं ।
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वीरा सालवी और श्रीकृष्ण दोनों ही १८००० साधुओं को वंदन करने की क्रिया कर रहे हैं । यहाँ क्रिया की समानता पूरी है । परन्तु दोनों के मानसिक परिणामों की भिन्नता बिल्कुल ही अलग-अलग है । जैसे श्रीकृष्ण के अध्यवसाय हैं वैसे वीरा सालवी के अध्यवसाय नहीं हैं । अतः अध्यवसाय के आधार पर परिणाम आता है ।
प्रसन्नचन्द्र राजर्षी—
प्रसिद्ध दृष्टान्त प्रसन्नचन्द्र राजर्षी का है । बाह्य क्रिया जो कायिक है वह देखने पर ध्यान - आसन की स्थिरता कितनी अच्छी लगती है। लेकिन मन साथ नहीं दे रहा है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा