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________________ 1 की अपेक्षा भी हेतु की प्राधान्यता हो गई । क्रिया करनेवाला कर्ता तो जीव ही है इसमें संदेह ही नहीं है । परन्तु क्रिया की अपेक्षा भी यहाँ पर हेतु की प्राधान्यता है । जैसा हेतु वैसा कर्मबंध, नहीं कि जैसी क्रिया वैसा कर्मबंध । अतः बंध का आधार क्रिया पर नहीं हेतु पर है । नियम भी यही कहता है कि... “क्रियाए कर्म - परिणामे बंध" । क्रिया से कर्म और परिणाम से कर्म का बंध होता है । क्रियाए - कर्म कहने का तात्पर्य क्रियारूप प्रवृत्ति द्वारा कार्मण वर्गणा का आत्मा में आगमन होना रूप कर्म है। यह कर्मबंध की पूर्वावस्था I है । प्राथमिक स्वरूप है । जैसे दूध मीठा कब होगा ? जब दूध में शक्कर आएगी तब । लेकिन शक्कर का दूध में आना- - प्रवेश मात्र ही दूध को मीठा नहीं बनाएगा। दूध में आए हुए शक्कर के कण दूध में नीचे बैठे रहेंगे। जब तक दूध में घुलमिलकर एकरस न हो जाय वहाँ तक दूध मीठा बनना संभव नहीं है। दूध में तल भाग में शक्कर पडी रहने के बावजूद भी दूध पीनेवाले को दूध फीका ही लगेगा । एक माँ ने बच्चे को दूध का ग्लास पीने के लिए दिया और पीते ही बच्चे का मुँह बिगड गया। बच्चे ने पीने से साफ इन्कार कर दिया और क्रोधावेश में आकर दूध का ग्लास फेंकने ही जा रहा था कि माँ ने आकर हाथ पकडा और पूछा क्या बात है ? बच्चा कहता हैं दूध में शक्कर नहीं है अतः फीका है । माँ ने कहा- नहीं, गलत है, दूध में शक्कर डाली हुई है। तूं झूठ बोलता है । बच्चा भी क्रोधित हो गया और जिद्द पर चढ गया । माँ-बच्चे के इस कलह के बीच पिता ने रास्ता निकाला और कहा- तुम दोनों सच्चे हो । तुम्हारे झगडे का मैं अभी १ मिनिट में अन्त लाता हूँ । पिता ने चम्मच ली और दूध हिलाया . बस... शक्कर के कण-कण सब घुल गए और दूध के साथ मिलकर एकरस बन गए। पहले दूध में शक्कर के कणों का आना मिलना मात्र था। Just to involve था। परन्तु चम्मच से हिलाते ही वह शक्कर दूध में Dissolve हो गई । यहाँ to Dissolve यह धातु घुलमिलकर एकरसीभाव बनने की क्रिया की द्योतक है । बस, माँ - बच्चे का संघर्ष मिट गया और दोनों ही सच्चे भी ठहरे। बच्चे ने मीठा दूध पी लिया । ठीक इसी तरह “क्रियाए कर्म" कहने में आश्रव का अर्थ प्रकट होता है। आश्रव में क्रिया मार्ग से कार्मण वर्गणा के परमाणुओं का आत्मप्रदेश में आगमन (आश्रवण) होता 1 है । अतः आश्रव तत्त्व की गणना में जो ५ प्रकार के मुख्य आश्रव हैं, उनमें १. इन्द्रिय, २ . कषाय, ३. अव्रत, ४. योग और ५. क्रिया में मुख्य रूप से सबकी क्रियात्मकता है । इन्द्रियों से देखना-सुननादि भी क्रियारूप है । कषाय में क्रोधादि करनेरूप क्रिया है । अव्रत में कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना " ८७५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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