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________________ अविरति में प्रमाद का समावेश 1 व्रतादि के अभाव में विरति न रहने पर अविरति कर्मबंध का कारण बनती है । हिंसा - झूठ - चोरी - अब्रह्म तथा परिग्रहादि की प्रधानरूप से अविरति में गणना की जाती है । यह भी बाह्य एवं स्थूल अविरति है लेकिन इनकी गहराई में उतरने पर स्पष्ट ख्याल आ जाता है कि .... हिंसा- झूठादि के पीछे विषय कषायों की मूलभूत कारणता रहती ही है । अतः मन में रहे हुए, छिपे हुए प्रच्छन्न क्रोध - मान-माया और लोभ तथा राग-द्वेषादि इन हिंसा - झूठ - चोरी आदि के कारण बनते हैं। आत्मा जब भी स्व स्वभाव की रमणता, या स्वगुणरमणता से तनिकमात्र भी पतित होकर किसी भी कषाय के आधीन हो जाती है तो वही अविरति है । वही प्रमाद है । अपने स्व-स्वभाव - स्व- गुणों में अप्रमत्तभाव से स्थिर रहना था । उसमें स्थिर न रहकर जब भी विभावदशा में जाकर कषायों के अधीन होना यह प्रमाद ही है। और ऐसे मानसिक प्रमाद के कारण मानसिक हिंसादि की अविरति आ ही जाती है । इसलिए मद - विषय - कषाय-निद्रा-विकथा आदि सभी प्रमाद के भेद अविरतिरूप गिने गए हैं। अतः अविरति और प्रमाद का एक दूसरे में समावेश हो जाता है। इसलिए विवक्षा बुद्धि से कहीं कहीं इनकी स्वतंत्र गणना करके बंध हेतु पाँच भी बताए गए हैं। और कहीं कहीं चार की गणना भी की गई है। 1 अविरति आश्रवकारक है और बंधकारक भी है। बात भी सही है कि आश्रव के अन्तर्गत कार्मण वर्गणाओं का आत्मप्रदेशों में आगमन होगा तब तो बंध होगा आश्रव कें बाद ही बंध होता है । उदाहरणार्थ जैसे दूध में शक्कर के कण पहले आएंगे तत्पश्चात् ही दूध में घुलकर एकरस बनेंगे। ठीक उसी तरह अविरति आदि के हिंसा झूठ-चोरी आदि की प्रवृत्ति द्वारा आत्मा में बाहरी कार्मण वर्गणा के परमाणु आकृष्ट होकर आएंगे । तत्पश्चात् ही आत्मप्रदेशों के साथ घुल-मिलकर एक-रसीभाव होकर कर्मबंध होगा। इस बंध की प्रक्रिया में अविरति पहले आश्रवरूप निमित्त बनती है। और बाद में बंध में कारण बनती है। मिथ्यात्वादि को बंध हेतु कहने का कारण 1 कर्म की व्याख्या में ही.. कर्मग्रन्थकार प्रथम कर्मग्रन्थ में "कीरइ जीएण हेउहिं जेणं तो भन्न कम्मं " इस प्रकार की व्याख्या करते हैं । अर्थात् जीव के द्वारा हेतुपूर्वक जो क्रिया की जाती है उसे कर्म कहते हैं । यहाँ कर्तरी नहीं अपितु कर्मणीप्रयोग किया गया है। जिससे सीधा जीव कर्ता न होकर हेतुपूर्वक, या हेतु के द्वारा कर्तृत्व आता है । अतः जीव ८७४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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