________________
हेतु है । यह पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर कार्यरत रहता है । मिथ्यात्व के कारण बडी भारी कर्मस्थितियों को बंधाता है । मिथ्यात्व बंध हेतु के साथ साथ आगे के सभी बंध हेतु रहते हैं । नियम ऐसा है कि पूर्व - पूर्व बंध हेतु के साथ उत्तर उत्तर (आगे के सभी बंध हेतु रहते हैं । परन्तु उत्तर - उत्तर- आगे के बंध हेतु के साथ पूर्व - पूर्व पहले के) बंध हेतु नहीं रहते हैं। उदा. मिथ्यात्व पहले बंध हेतु के साथ उत्तर - उत्तर के अविरति—(प्रमाद)कषाय और योग ये सभी बंध हेतु रहते हैं। लेकिन कषाय तीसरे बंधहेतु के रहने पर पहले के दो मिथ्यात्व और अविरति बंध हेतु नहीं रहते हैं । इसलिए आगे के गुणस्थानों पर मिथ्यात्वादि बंधहेतु कर्म बंधाने नहीं आते हैं । कारणरूप नहीं बनते हैं ।
१३ गुणस्थानों पर इन ४ बंधहेतुओं के कारण कहाँ किससे और कितने कर्मों का बंध होता है यह विचारणा यहाँ की है ।
प्रमाद का समावेश अविरति के अन्तर्गत विवक्षा से किया गया है । प्रमाद के अन्दर मात्र निद्रा ही नहीं है अपितु कषाय - विषयादि की भी गणना की गई है। सच देखा जाय तो साधना की ऊंची कक्षा पर पहुंचे हुए साधक के लिए जहाँ कर्मक्षय करते हुए मोक्ष की दिशा में अग्रसर होना है वहाँ यदि वह अल्पमात्र भी प्रमाद करता है तो पुनः भारी कर्मों hi बंध होता है और पतन होता है । जैसे प्रमाद कायिक-शारीरिक होता है, ठीक वैसे ही वाचिक तथा मानसिक भी होता है । ठीक है कि शारीरिक प्रमाद प्रमाण में ज्यादा
1
|
होता है । और वह दूसरों की दृष्टि में दृष्टिगोचर होता है, दिखाई देता है । लेकिन वाचिक तथा मानसिक प्रमाद दूसरों की दृष्टि में दिखने में नहीं आता है । फिर भी प्रमाद तो प्रमाद ही है । इतनी ऊंची कक्षा में पहुँचने के बाद तो आत्मा के उपयोगभाव से १ समयमात्र भी अध्यवसायों का पतन होना बड़ा भारी प्रमाद है । इतने अच्छे सजग-जागृत साधक के लिए ध्यान साधना में मानसिक विचारों का प्रमाद भी पतनकारक हो जाता है 1 कर्मबंधकारक बन जाता है । अतः कितना ज्यादा सावधान रहना पडता है !
देखने पर कोई साधक बाह्य शरीर से आसन लगाकर संपूर्ण स्थिर होकर बैठा हो तो देखनेवालों के लिए काफी अच्छी स्थिरता जरूर दिखाई देगी। उन्हें वह अप्रमत्त लगेगा। लेकिन वह अप्रमत्तता - सावधानी मात्र शारीरिक- कायिक है । परन्तु मन तो अन्दर ही अन्दर सारी दुनिया में भी भटक रहा है। हो सकता है कि वह आन्तरिक कषायों की दुनिया में भी भटक रहा हो। तो जहाँ साधक ध्यानादि की साधना में इतनी ऊंची भूमिका में पहुँचा हो और फिर भी यदि थोडा - बहुत भी मन भटक जाय, या कषाय-1 - विषय के आधीन हो जाय तो फिर भारी कर्मों का बंध हो जाएगा तथा पतन भी हो जाएगा । अतः यहाँ प्रमाद में विषय- कषायादि की भी गणना की गई है।
कर्मक्षय - " संसार की सर्वोत्तम साधना "
८७३