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________________ योगी कंवली ८७२ क्षीण मोह O प्रमाद उपशांत माह सूक्ष्म संप वृ अविरति - Karupphit अप्रमत्त. मिथ्यात्व प्रमत्तसंयत --- कषाय देशविरत मिश्र सास्वादन Pitt तरह उपरोक्त दृष्टान्त द्वारा कर्मबंध में मुख्य कारणभूत हेतु का स्पष्ट ख्याल अच्छी तरह आ सकता है । सर्वज्ञ भगवान ने 1 श्री मिथ्यात्व-अविरति - कषाय और योग इन चार को प्रमुख रूप से हेतु के रूप में दर्शाया है । ये ही कर्म बंध में मुख्य कारणरूप हैं । इसके आधार पर किस जीव को कितने कर्मों का बंध कहाँ होगा ? का ख्याल आता है । दो चार मित्रों की बाह्य प्रवृत्ति समान दिखाई देने के पश्चात् भी सबके आन्तरिक हेतु भिन्न-भिन्न होंगे । अतः हेतु के आधार पर शुभाशुभ कर्म का बंध भी कम ज्यादा होगा । और उदय में आने पर सुख - दुःख की वेदना–संवेदना भी कम ज्यादा होगी । संसार की चारों गति और पाँचों जाति के समस्त जीवों का समावेश १४ गुणस्थानों में किया गया है । जिसमें से पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर ही ९९% जीवों का समावेश हो जाता है। चौथे से आगे सर्वत्र तो सम्यग्दृष्टि जीवों की ही गणना होती है । इन १४ गुणस्थानों पर रहे हुए जीव भी कर्मबंध तो करते ही हैं । अतः किस गुणस्थान पर रहे हुए कौन से जीव किस बंध हेतु से कर्म बांधते हैं यह विचार यहाँ अपेक्षित है। उपरोक्त तालिका देखने से स्पष्ट ख्याल आ जाएगा कि .... कौन सा बंध हेतु किस और कितने गुणस्थानों तक कर्मों का बंध कराता है । १. मिथ्यात्व यह पहला बंध आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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