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________________ पहले भी हम कर्मबंध के हेतुओं के विषय में विचारणा कर आए हैं। वहाँ ५ की विवक्षा थी । प्रमाद का भी उनमें समावेश किया गया था। यहाँ पंचसंग्रह शास्त्र में ४ थे द्वार की इस प्रथम गाथा में ४ बंध हेतुओं की विवक्षा की है। प्रमाद को अविरति में ही अंतर्धान कर देते हैं । वैसे भी प्रमाद कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है । वह भी मद + विषय + कषाय-योगों आदि का सम्मिलित स्वरूप है । और कषाय-योगादि तो सभी यहाँ स्वतंत्र रूप से बंध हेतु के रूप में गिने ही गए हैं । अतः प्रमाद की स्वतंत्र विवक्षा न करना भी अनुचित नहीं है । प्रमाद मात्र निद्रा अर्थ में ही प्रयुक्त नहीं है । यह सर्वसामान्य व्यवहार भाषा में जरूर प्रयुक्त है । परन्तु कर्मशास्त्र की परिभाषा में आत्मा के उपयोग को छोडकर कर्मबंध की प्रत्येक प्रवृत्ति प्रमादस्वरूप ही है ऐसा अर्थ घटित है। प्रस्तुत मिथ्यात्वादि कर्मबंध के हेतु जो ४ हैं इन सबका विशेष वर्णन पहले कर चुके हैं । अतः यहाँ पुनः आवश्यकता नहीं है । हेतु जो मन के अन्दर के आशय स्वरूप हैं वे ही कर्म का बंध कराने में महत्व की भूमिका अदा करते हैं। हो सकता है कि किसी भी जीव की बाह्य प्रवृत्ति किसी भी प्रकार की हो लेकिन उसके मन की अन्दर की आन्तरिक वृत्ति कैसी होती है । इसका किसीको कोई ख्याल ही नहीं आता है । मायावी स्त्री की तरह बाह्य दिखावा कुछ और ही हो और आन्तरिक हेत-आशय कुछ और ही हो... उसी तरह व्यक्ति की प्रवृत्ति कुछ और ही प्रकार की हो और अन्दर की वृत्ति कुछ अलग ही ढंग की हो तो उसमें बाह्य प्रवृत्ति नहीं परन्तु आन्तरिक हेतु के आधार पर कर्म का बंध उतने प्रमाण में होता है। बगला तालाब में बिल्कुल स्थिर खडा रहकर किसी को ध्यान की स्थिरता, पाषाणरूप स्थिरता का आभास करा सकता है लेकिन सच तो यह है कि उसके आन्तर मन में मछली पकड़ने का हेतु है । अतः कर्म का बंध उसकी बाह्य स्थिरता के कारण नहीं लेकिन मछली जैसे पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा करने के हेतु के आधार पर होगा। इसके कारण ही बडे भारी गाढ कर्मों का बंध होता है और ऐसे जीव लम्बा चौडा आयुष्य लेकर नरक गति में जाते हैं । इस प्रकार की हिंसा अविरति बंध हेतु में गिनी गई है। - एक डॉक्टर और खूनी हत्यारा दोनों की बाह्य प्रवृत्ति में कुछ अंशों में समानता दिखाई भी देगी। चाकू लेना, पेट चीरना, खून निकालना आदि । लेकिन दोनों के हेतु में आसमान जमीन का अन्तर है । डॉक्टर मरते हुए को भी बचाना चाहता है जबकि खूनी हत्यारा बचे हुए को भी चाकू से मार डालना चाहता है । अतः डॉक्टर को प्राणिरक्षा का पुण्यरूप शुभकर्म का बंध होगा। और एक हिंसक खूनी हत्यारे को पंचेन्द्रिय मनुष्य का वध करने का भारी पाप लगेगा और वह भारी कर्म बांधकर नरकगति में जाएगा। इस कर्मक्षय- “संसार की सर्वोत्तम साधना" ८७१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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