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________________ उपरोक्त मुख्य तीन के- १. प्रकृतिबंध, २.स्थितिबंध, ३. रसबंध तथा ४. प्रदेशबंध इन चारों के साथ कुल १२ प्रकार होते हैं। इन १२ के पुनः १. उत्कृष्ट बंध, २. अनुत्कृष्ट बंध, ३. जघन्य बंध और ४. अजघन्य बंध इन ४ के साथ और भेद-प्रभेद बनते हैं। तथा ये उत्कृष्टादि चारों प्रकार के बंध पुनः १. सादि, २. अनादि, ३. अनन्त, तथा ४ सान्त इन चार प्रकार के हैं। इन सबको वापिस १. मूल कर्म के बंध तथा २. उत्तर कर्म प्रकृतियों के बंध के साथ जोडने से पुनः दो प्रकार के बनते हैं । इस तरह इतने विस्तार पूर्वक कर्म बंध का गहराई से विचार किया गया है। १. ज्यादा से ज्यादा कर्म का जो बंधवह उत्कृष्ट बंध कहलाता है । २. उसमें समयादि कम-कम होते होते जघन्य तक का जो कर्मबंध वह अनुत्कृष्ट बंध है। ३. और सबसे न्यूनतम बंध को जघन्य बंध कहते हैं। ४ और समयादि बढते-बढते जो उत्कृष्ट तक का कर्मबंध है वह अजघन्य बंध कहलाता है। सामान्य रूप से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये ३ भेद ही होते देखे गए हैं । परन्तु यहाँ जघन्य और अजघन्य, तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट इन दो-दो की जोडी बनाकर भेदों की विवक्षा की गई है। _ इसी तरह ५ वी गाथा में अन्य तरीके से भी मूल और उत्तर प्रकृतियों को ४ बंध के प्रकारों के साथ विवक्षा की है। वे हैं- १. भूयस्कार, २. अल्पतर, ३. अवक्तव्य और अवस्थित । इन भेदों से भी विशद विचारणा कर्मविशारदों ने की है । यह अगाध कर्मशास्त्र है। जैन कर्मशास्त्रों के सिवाय सारे संसार के किसी भी धर्म या दर्शन में यह और ऐसी तथा इतनी गहन विचारणा ही नहीं की है। गहराई में जानेवाले जिज्ञासुओं को पंचसंग्रह ग्रन्थ का अभ्यास करना चाहिए। गुणस्थानों पर बंध हेतु बंधस्स मिच्छअविरइ कसाय जोगा य हेयवो भणिया। ते पंच दुवालस-पन्नवीस पन्नरस भेइल्ला ॥४/१॥ बंध हेतु मिथ्यात्व कषाय योग अविरति +१२ । | ५ | +२५ । +१५ । ५७ आध्यात्मिक विकास यात्रा .
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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