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अतः अनादि, और अभव्य जीव की मुक्ति कभी होती ही नहीं है, सदाकाल संसार ही रहता है । अतः उनके कर्मों का बंध भी अनन्तकाल तक होता ही रहता है । कर्मजन्य संसार है और संसारजन्य कर्म है । अतः कर्मसंयोग से संसार चलता ही रहेगा। अभव्यों के लिए अन्त ही नहीं है। ____२) दूसरे भव्य की कक्षा के जीव हैं। उनमें कर्मों का बंध दूसरे प्रकार का अनादि सांत रहता है। भव्य जीवों में भी भूतकाल में सदा ही कर्मों का बंध होता ही रहता था इसलिए अनादि कहलाता है । परन्तु भविष्य काल में कभी न कभी भव्यात्माओं का मोक्ष होनेवाला है । अतः कर्मों का बंध सान्त-अन्त होने वाले की कक्षा का होता है। कर्मबंध की प्रक्रिया सर्वथा रुक जाएगी और संपूर्ण निर्जरा होने के पश्चात् संसार से मुक्ति हो
जाएगी।
३) तीसरा प्रकार जो सादि-सान्त का है वह उपशान्त मोह-११ वे गुणस्थान से गिरते जीवों में घटता है । यहाँ ११ वे गुणस्थान पर बंध का अभाव हो जाता है । लेकिन ११ वे पर से गिरने के समय पुनः कर्म का बंध होता है । अतः सादि-सान्त प्रकार का बंध गिना जाता है । इस तरह तीन प्रकार का बंध तत्त्व दर्शाया है ज्ञानी महापुरुषों ने । आगे की गाथा में इनके भी आगे के भेद दिखाते हैं।
पयडीठिइ पएसाणुभागभेया चउब्विहेक्केक्को। उक्कोसाणुक्कोसजहन्न अजहन्नया तेसिं
।।५/१०।। ते वि हु साइ अणाईधुवअधुवभेयओ पुणो चउहा। ते दुविहा पुण नेया मुलुत्तर पयइभेएणं
॥५/११॥
कर्मबंध के प्रकार
- अनादि-सान्त
अनादि-अनंत
सादि-सान्त
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त्कृ. | नु.
कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना"