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________________ तब उसमें मोहनीय कर्म के बिना ५ कर्मों की उदीरणा होती है । उपशमश्रेणि में मोहनीय की सत्ता ज्यादा होने के कारण चरम समय पर्यन्त उदीरणा होती है । १० वे गुणस्थान की चरम आवलिका से लेकर क्षीण मोह गुणस्थान पर्यन्त मोहनीय वेदनीय और आयु के बिना शेष ५ कर्मों की उदीरणा होती है। क्षीणमोह १२ वे गुणस्थान में नाम और गोत्र इन २ कर्मों की ही उदीरणा होती है। वैसे कोई भी कर्म सत्ता में जब एक आवलिका शेष रहे तब उस कर्म की उदीरणा नहीं होती है। कारण यह है कि ऊपर की स्थिति में से खींच सके वैसा दल बचा ही नहीं है। क्षीणमोह गुणस्थान की चरमावलिका से लेकर सयोगी केवलि १३ वे गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त मात्र नाम-गोत्र इन २ कर्मों की ही उदीरणा होती है । उदीरणा 'योग' होने पर ही होती है । १४ वे गुणस्थान पर अयोगी केवली को सूक्ष्म या स्थूल किसी भी प्रकार का योग होता ही नहीं है । अतः वहाँ किसी भी प्रकार की उदीरणा होने का सवाल ही खडा नहीं होता है । अयोगी जीव किसी भी कर्म को नहीं उदीरता है। वेदनीय और आयुकर्म के बिना शेष ६ कर्मों का जब तक उदय रहता है तब तक ही उदीरणा होती है। इसी तरह किसी भी कर्म की सत्ता में एक आवलिका शेष रहे तब उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। पंचसंग्रह ग्रंथ में उत्तर प्रकृतियों का विस्तृत विवेचन करते हुए किस किस गुणस्थान पर किस-किस कर्म की किस-किस उत्तर प्रकृति की उदीरणा होती है इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ से विशेष अध्ययन करना चाहिए। . काल सापेक्षिक कर्मबंध होइ अणाइ-अणंतो अणाइसंतो य साइसंतो य। बंधो अभव्व-भव्वोवसंतजीवेसु इइ तिविहो काल की सापेक्ष दृष्टि से पंचसंग्रह में तीन प्रकार के कर्म बंध बताए हैं। १) अनादि-अनन्त कालीन कर्म बंध । २) अनादि-सान्त कालीन कर्म बंध। ३) सादि-सान्त कालीन कर्म बंध। .. १) अभव्य प्रकार के संसारी जीवों में सांपरायिक कर्मों का बंध . अनादि-अनन्तकालीन रहता है । भूतकाल में सदा ही कर्मों का बंध होता ही आया है। ॥५/९॥ ८६८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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