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________________ मिश्रगुणस्थान पर ८ कर्मों की उदीरणा कर सकता है । मिश्र गुणस्थान पर लम्बे काल तक स्थिर नहीं रहता है, वहाँ अंतर्मुहूर्त पश्चात् तो गुणस्थान का परिवर्तन हो जाता है । आयुष्य कर्म की अन्तिम आवलिका तक आयुष्य की उदीरणा न होने से७ कर्म की उदीरणा होती है अन्यथा सदा ८ कर्म की उदीरणा होती है । नियम ऐसा है कि- “वेद्यमानमेवोदीर्यते" वेदा जाता कर्म ही उदीरणा के अन्तर्गत आ सकता है । मिश्र गुणस्थान तीसरे पर मरता नहीं है, अतः ८ की उदीरणा करता है । १० वे सूक्ष्म संपराय गुणस्थान पर ६ या ५ कर्म की उदीरणा जीव करता है । आवलिका से ज्यादा होने पर तब तक ६ की उदीरणा और आवलिका शेष रहे तब मोहनीय की उदीरणा समाप्त हो जाने पर ५ की उदीरणा रहती है । उपशान्त मोहनीय ११ वे गुणस्थान पर विशुद्धि के कारण मोहनीय और आयुष्य कर्म २ को छोडकर शेष ५ कर्मों की उदीरणा करता है । क्षीण मोह १२ वें गुणस्थानवाला ५ अथवा २ कर्म की और सयोगी केवली १३ वे गुणस्थानवाला २ कर्मों की उदीरणा करते हैं । १४ वे गुणस्थान अयोगी केवली के लिए तो उदीरणा का प्रश्न ही खडा नहीं होता है। अतः वे सदा अनुदीरक ही होते हैं । ७ वे अप्रमत्त गुणस्थान से १० वे सूक्ष्म संपराय गुणस्थान की अन्तिम आवलिका शेष रहे तब तक ५ कर्म की उदीरणा करता है जीव । १२ वे गुणस्थान की अन्तिम आवलिका से लेकर १३ वे गुणस्थान के अन्त तक २ कर्म की उदीरणा करता है। उदीरणा के अधिकार में सभी कर्मों की उदयसत्ता की स्थिति १ आवलिका शेष रहे तब उदीरणा रुक जाती है। इस प्रकार उदीरणा का अधिकार दर्शाया है। पंचसंग्रहकार ने पाँचवे द्वार की पाँचवी गाथा में यह विषय इस प्रकार दर्शाया है जाव पमत्तो अट्ठण्हुदीरगो वेद्यआउवज्जाणं। सुहुमो मोहेण यजा खीणो तप्परओ नामगोयाणं ॥५/५ ।। - इसीका विवेचन ऊपर किया गया है । उदयावलिका पर की स्थिति में से दलिकों को खींचकर उदयावलिका के साथ भोगने योग्य करना इसे उदीरणा कहते हैं । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि गुणस्थान पर वर्तते हुए सभी जीव सदा आठों कमों की उदीरणा करनेवाले होते हैं। तीसरे मिश्र गुणस्थान पर अंतर्मुहूर्त पूर्ण होने की १ आवलिका के शेष रहने पर ही जीव मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के गुणस्थान पर चला जाता है । ७ वे अप्रमत्त से लेकर १० वे सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान पर्यन्त सभी जीव वेदनीय और आयुष्य कर्म के बिना ६ कर्म की उदीरणा करनेवाले उदीरक होते हैं । अप्रमत्तभाव के कारण वेदनीय और आयु कर्म की उदीरणा नहीं होती है। इसीलिए इन २ कर्मों को छोड़ा गया है । सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान पर क्षपकश्रेणि में क्षय करते करते सत्ता में १ आवलिका शेष रहे. कर्मक्षय-"संसार की सर्वोत्तम साधना" ८६७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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