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रहना आवश्यक है। तभी उसके आधार पर आगे के गुणस्थान पर आगे-आगे बढना संभव होता है। ___ जिस गुणस्थान पर रहे हैं उस गुणस्थान पर स्थिर रहकर साधना करनी और आगे के गुणस्थान पर चढने के लिए पूर्वतैयारी करनी है । यहाँ तैयारी के लिए क्या करना है ? मोहनीय कर्म की उतनी राग-द्वेष-कषाय–विषयादि की कर्मप्रकृतियाँ खपानी हैं, क्षय करनी हैं, तो ही आगे गमन होगा। और यदि कर्म प्रकृतियों का क्षय न कर सके तो आगे गमन नहीं होगा। गुणस्थानों पर कर्मबंध___ जैन कर्मशास्त्र के अनुसार ८ कर्म मुख्य हैं। उनमें ४ घातिकर्म और ४ अघातिकर्म । इनकी अवान्तर कर्मप्रकृतियाँ कुल १५८ हैं । जब जीव कर्मबंध करता है तब तो थोक बंध कर्म एकसाथ बांधता है । सर्वज्ञ भगवान ने तो यहाँ तक कहा है कि... एक बार आँख बंद करके खोलने जितनी क्रिया में असंख्य समय बीत जाते हैं । जिन असंख्य के प्रत्येक समय जीव सात-सात कर्मों का बंध करता है । आठवें आयुष्य कर्म का बंध जीवन में एक ही बार होता है । शेष सात कर्मों का बंध प्रति समय होता रहता है । समय यह काल की सूक्ष्मतम अविभाज्य इकाई है । इस तरह पलक मात्र काल में असंख्य कर्म बंध जाते हैं । तो कल्पना करिए । एक मिनिट परिमित काल में कितने समय होंगे? और एक घण्टे के सीमित काल में कितने समय होंगे? तथा एक दिन के काल में कितने समय होंगे? जब समयों की गणना ही हमारी बुद्धि के बाहर है तो फिर प्रत्येक समय में ७-७ कर्म के बंधों का हिसाब गिनना कहाँ संभव है ? अतः असंख्य x ७ = पुनः असंख्य की ही संख्या रहेगी। इस तरह जीव निरंतर कर्म बांधता ही रहता है । परन्तु निरन्तर निर्जरा कहाँ होती है?
इतना जरूर है कि जैसे-जैसे जीव एक–एक गुणस्थान ऊपर-ऊपर चढता जाता है वैसे-वैसे कर्म के बंध का प्रमाण भी घटता जाता है । क्योंकि गुणस्थानों की विशुद्धि के आधार पर बंध में फरक पडता है । ८ कर्मों की १५८ प्रकृतियों में से देखिए, किस किस गुणस्थान पर कितनी-कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध होता है ? सामान्यरूप से १५८ मूलभूत अवान्तर कर्मप्रकृतियों में से १२० कर्मप्रकृतियों की ही गणना बंध में गिनी जाती है । ऐसा कर्मग्रन्थकार का निर्देश है । उसके अनुसार
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आध्यात्मिक विकास यात्रा