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________________ वह सामायिक कहलाती है। यह दो घडी = ४८ मिनिट की होती है । पौषध दिन का, रात का अलग-अलग ४-४ प्रहर अर्थात् १२ घंटे का होता है । और पूरे दिन-रात का अर्थात् ८ प्रहर = २४ घंटे का भी होता है। यह साधना गृहस्थाश्रम में रहकर गृहस्थी श्रावक करता है । जो विरतिरूप धर्म है । जितनी देर वह इस विरति में रहता है उतनी देर पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि के किसी भी जीव की विराधना नहीं करता है। कच्चे पानी, वनस्पति या अपनी पुत्री, कन्या, पली आदि किसी भी स्त्री आदि का स्पर्श नहीं करता है। आमोद-प्रमोद के सभी साधन छोड देता है । आरामदायक किसी भी साधन का उपयोग नहीं करना । खाना-पानादि भी सामायिक में नहीं होता है। अरे, जितनी देर तक मंदिर में रहकर दर्शन-पूजा भी करता है उतनी देर तक भी कोई दर्शनार्थी पूजार्थी सर्वथा खाता-पीता नहीं है । न तो पानी पीना है और न ही प्रसाद खाना है। इसीलिए जैन धर्म में मंदिर में भगवान के दर्शन-पूजादि प्रसंग पर तीर्थजल या प्रसाद देने-लेने, खाने-पीने आदि की कोई पद्धति-परंपरा ही नहीं है । रखी ही नहीं है। इसलिए थोडी देर तक मंदिर में दर्शन-पूजा के लिए रहा हुआ साधक भी खाने-पीने की प्रवृत्ति से सर्वथा निवृत्त रहता है । सामायिक तो विशेषरूप से विरतिधर्म है। उसमें तो खाने-पीने तथा किसी भी जीव की विराधनादि का सवाल ही नहीं रहता है। यह विरति श्रावक के लिए देशविरति है । अन्य धर्मों में ऐसे कोई आचार-सिद्धान्त ही नहीं हैं । यह देशविरति श्रावक के लिए पाँचवें गुणस्थानवी धर्म है । - इससे भी आगे बढकर छठे गुणस्थान पर आरूढ होकर जो सर्वविरति-सर्वथा सम्पूर्ण विरति धारण करके साधु बन जाता है, श्रावक की सामायिक, पौषध की काल अवधि है । जो “जाव नियम", "जाव पोसहं" शब्द से घोतित की है। लेकिन दीक्षासंन्यास लेकर साधु बनने के बाद जो सर्वविरति ग्रहण की जाती है उसमें काल अवधि नहीं रहती है। वह साधु धर्म आजीवन के लिए रहता है। इसलिए “जावज्जीवं” का पच्चक्खाण है । बस, एक बार जो साधु बन गया वह जीवनभर के लिए साधु ही रहता है । मृत्यु की अन्तिम श्वास तक साधुत्व को पूर्ण रूप से निभाना चाहिए। यह ऐसा नहीं है कि जब तक पला तब तक पाला और नहीं तो छोड़कर चले गए। जी नहीं, छोडकर जाना उचित नहीं है। यह व्रतभंग है। प्रतिज्ञा का भंग है । आजीवन पर्यन्त का साधुधर्म है । सर्वविरतिरूप चारित्रधर्म है । प्रमादयुक्त होने के कारण यह छठे गुणस्थान पर आरूढ होता है और फिर रत्तीभर भी गिरना नहीं है। आगे ही आगे बढना है । आगे आगे के गुणस्थान के लिए पीछे पीछे के गुणस्थान तथा जिस पर आरूढ है वह गुणस्थान स्थिर कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना"
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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