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________________ आधार रहता है । संसार में धर्म करनेवाले धर्मियों में भी अधिकांश जीवों का मोक्ष का लक्ष्य-साध्य ही नहीं रहता है। अधिकांश जीव तो सुख के लक्षी बनकर ही धर्म करके अभिलषित सुख की प्राप्ति में संतोष और इतिश्री मान लेते हैं। बस, उन्हें मोक्ष से कोई तालुक ही नहीं है । यहाँ पर सबसे बडी भूल होती है। . मोक्षविषयक सम्यक् सच्चा ज्ञान प्राप्त करना, बढाना पहले जरूरी है। फिर तद्विषयक सच्ची श्रद्धा बढनी चाहिए। और उसके पश्चात् वैसा आचरण मोक्ष के अनुकूल करना चाहिए। उसमें निर्जरा करने के लिए तीव्रता लानी चाहिए। तब जाकर मोक्ष की प्राप्ति संभव होती है । मोक्ष का लक्ष्य-भाव-इच्छा बन जाने से भव्यत्वपने की छाप लगती है । मुहर लगती है। और मोक्ष प्राप्ति की प्रबल इच्छा बनने के बाद उसे धर्म सही प्राप्त होगा। यदि नहीं भी होगा तो साधक ढूंढ निकालेगा। वह स्वयं समझेगा कि कौनसा, कैसा धर्म मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ-सक्षम है या नहीं है? वह स्वयं धर्म की, गुरु की परीक्षा करके पहचान कर पाएगा। और मुझे कैसा धर्म करना चाहिए.. कैसा धर्म मोक्ष प्राप्ति में सहायक होगा यह समझकर वह निर्णय कर पाएगा। मोक्ष की भावना के अनुरूप उसके मन में धर्म करने की तीव्रता-तलप अपने आप जगेगी-बढेगी। उसे जबरदस्ती कराना नहीं पडेगा। विरतिधर्म की विशेषता मोक्षाभिलाषा जगाकर मोक्षैकलक्षी धर्म करनेवाला जीव जब संसार से विरक्त हो जाता है तब विरतिरूप धर्म ही एकमात्र आधारस्तंभ बन जाता है । विरक्ति से विरति शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है। और विरक्ति से विरति सहज बन जाती है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि संसार के अनेक धर्मों में विरति धर्म की व्यवस्था ही नहीं है। जैन धर्म में दो घडी की सामायिक प्रतिक्रमण की, दिन-रात के पौषधादि की तथा देशविरति और सर्वविरति धर्म की जैसी व्यवस्था है वैसी संसार के किसी भी अन्य धर्म में नहीं है। और संवर-निर्जरा की भी व्यवस्था ही नहीं है । विरति के लिए... एकेंद्रिय-विकलेन्द्रियादि जीवों को जीवस्वरूप में मानना-जानना-समझना जरूरी है। पृथ्वी-पानीअग्नि-वायु-वनस्पति तथा प्रसादि जीवों को जीवरूप मानना आवश्यक है । फिर उन्हें बचाना, उनकी रक्षा करना, उनकी विराधना न करना, निर्धारित समय तक प्रतिज्ञापूर्वक मन-वचन-काया से सावध हिंसादि पापों की प्रवृत्ति स्वयं न करना, दूसरों के पास भी न कराना, करनेवाले को भी अच्छा न मानना, ऐसा लक्ष्य रखकर जो साधना की जाती है आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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