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जो धर्म मात्र पुण्योपार्जन कराके जन्म-जन्मान्तर में सुख की प्राप्ति कराए उसे सुखलक्षी धर्म कहते हैं । सुख का साधनभूत कहते हैं। लेकिन सुखप्राप्ति के लिए मात्र धर्म का उपयोग किया जाता है वह गलत है । सुखप्राप्ति का लक्ष्य बनाकर तदनुरूप धर्म करना यह सबसे बडी भूल है । धर्म एक मात्र मोक्षैकलक्षी ही होना चाहिए ।
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जैसा मोक्ष का स्वरूप है ठीक मोक्षप्राप्ति के अनुरूप धर्म का भी स्वरूप होना चाहिए । मोक्ष सर्वकर्मरहित अवस्था का नाम है। अतः धर्म ऐसा होना चाहिए, जो सर्व कर्म का क्षय कराए । मोक्ष सर्वथा शरीररहित अवस्था का नाम है । अतः धर्म ऐसा होना चाहिए जो आत्मा को अशरीरी बनाए । मोक्ष आत्मा की संपूर्ण शुद्ध अवस्था का नाम है । अतः धर्म ऐसा होना चाहिए जो आत्मा को शुद्ध करे । आत्मशुद्धिकारक धर्म ही श्रेष्ठ है । सर्वथा जन्म-मरण धारण करने ही न पडे यह मोक्ष का स्वरूप है । अतः धर्म भी ऐसा ही होना चाहिए जो आत्मा के जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा दिलाए .. !.. का अन्त लाए । भवपरंपरा के अन्त का नाम मोक्ष है । अतः धर्म भवपरंपरा - भवरोग मिटानेवाला सक्षम-समर्थ होना चाहिए। मोक्ष आत्मा के सर्व गुणों की पूर्णता की प्राप्ति का नाम है । 'अतः धर्म आत्मा के सभी गुणों को पूर्ण रूप में प्रकट करनेवाला तदनुरूप होना चाहिए । मोक्ष में सभी सर्वज्ञ - केवली - वीतरागी ही होते हैं, अतः धर्म भी आत्मा को सर्वज्ञता - केवलज्ञान - वीतरागता की प्राप्ति करानेवाला ही होना चाहिए ।
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इस तरह मोक्ष कार्यरूप फलरूप है, जबकि धर्म उसका कारणरूप है । मात्र सुखैकलक्षी धर्म, जन्म-जन्मान्तर में सुख प्राप्त करानेवाला धर्म, या पुण्यलक्षी धर्म मोक्ष तक नहीं ले जाता है । स्वर्ग की प्राप्ति का लक्ष्य पुनः मोक्ष से आत्मा को ज्यादा दूर कर देता है । अतः स्वर्ग अलग है और अपवर्ग अलग कक्षा है। जहाँ तक —- जब तक हमने अपवर्ग-मोक्ष का स्वरूप नहीं समझा है तब तक स्वर्ग का सुख प्रिय लगता है । अच्छा लगता है । परन्तु एक बार मोक्ष का स्वरूप स्पष्ट शुद्ध सत्यरूप ख्याल में आ जाने के पश्चात् स्वर्ग और स्वर्ग के सुख आदि सब उसके सामने तुच्छ लगेंगे ।
यह १४ गुणस्थान की आध्यात्मिक विकास की यात्रा मोक्ष के अन्तिम किनारे तक पहुँचानेवाली है । तदनुरूप है। संवर धर्म मोक्ष के अनुरूप है । निर्जरा का धर्म मोक्ष प्राप्त करानेवाला तदनुरूप धर्म है। तथा सर्वोत्तम - सर्वश्रेष्ठ कक्षा का शुभ भाव पुण्यानुबंधी पुण्य परंपरा से मोक्ष के समीप आत्मा को ले जाने में सहायक बनता है । इसलिए जैसा. लक्ष्य-साध्य रखते हो उसके अनुरूप धर्म होगा । अतः लक्ष्य - साध्य कैसा है उस पर
कर्मक्षय – “संसार की सर्वोत्तम साधना "
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