SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतः जैन शासन में धर्म का एक भी प्रकार ऐसा नहीं है जो कर्मक्षय - निर्जरा न कराए । अवश्य ही निर्जरा कराते हैं। श्री नमस्कार महामन्त्र में सातवें पद में “सव्वपावप्पणासणो” लिखा है। इसका स्पष्ट अर्थ साफ है कि... सभी पाप (कर्मों) का प्रनाशन (क्षय) हो । प्र + नाशः = प्रनाशः । प्रकृष्टेन नाशः - प्रनाशः । नश् धातु के आगे उत्कृष्ट अर्थ में “X” उपसर्ग लगा और व्याकरण के नियमानुसार " प्रनाशन" शब्द बना । उत्कृष्ट रूप से - प्रकृष्ट रूप से सभी पापकर्मों का नाश होना चाहिए। अतः यह प्रनाशन शब्द निर्जरासूचक है । क्षय-नाशकारक है । किसका नाश ? पाप (कर्मों) का नाश । कितने पापों - कर्मों का नाश ? ... इसके उत्तर में - संख्यासूचक शब्द दिया हैं— “सव्व” अर्थात् सभी पापकर्मों का उत्कृष्ट रूप से सर्वथा क्षय - नाश करना उत्कृष्ट कक्षा की निर्जरा है । बस, यही निर्जरा सर्वांशिक - सर्वथा - संपूर्ण रूप से हो जाय और नाममात्र भी कर्म का अंश न रहे तो मोक्षप्राप्ति हो जाती है। इस तरह नमस्कार महामंत्र का यह सातवाँ पद मोक्षसूचक है । मोक्ष तत्त्व को इंगित करता है । मुक्तिसूचक है । यदि सर्वथा संपूर्णरूप से सभी कर्मों की निर्जरा न हो तो मोक्ष नहीं । तब यही सातवाँ पद निर्जरासूचक कहलाएगा और सर्वांशिक सभी पापकर्मों का प्रकृष्ट नाश हो जाय तो निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। I 1 इस तरह नमस्कार महामंत्र की चूलिका में इतना गूढार्थ - रहस्यार्थ भरा हुआ है । जो सार्थक - सहेतुक है । फिर भी ऐसे महामंत्र में भी साम्प्रदायिकता का विष घोल दिया गया और आधा ही नवकार मानना, गिनना यह एक दुश्चक्र खडा किया गया है। जो सर्वथा निरर्थक है । ऐसा गंभीर रहस्यार्थदर्शक सातवाँ पद साधक के लक्ष्य-हेतु को निश्चित करता - कराता है । फिर उस पद को हटाना - उडा देना, या पूरी चूलिका को हटा देना- उडा देना अनर्थकारक है । यह एक प्रकार के आभिनिवेशीक भावपूर्वक की वृत्ति है । जो सर्वथा घातक है । अतः सभी जैन मात्र का कर्तव्य है कि नमस्कार महामंत्र की अखंडितता को पूर्णता को अपनाएं | नवकार के नाम पर जहर न घोला जाय और निरर्थक जैन धर्म की एकता को न तोडा जाय ऐसी नवकार की अखंड परंपरा की अखंडितता को अखंड-अविभाजित बनाए रखें और प्रत्येक स्थान पर पूर्ण नवकार का ही व्यवहार करना चाहिए । 1 ४) मोक्षैकलक्षी धर्म चौथा प्रकार मोक्षलक्षी धर्म का है। धर्म मोक्ष के लिए है। मोक्ष साध्य है और धर्म उसे प्राप्त करानेवाला साधन मात्र है। जो धर्म मोक्ष प्राप्त कराए उसे मोक्षधर्म कहा है और ८५६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy