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लोहे की जंजीर के बदले यह सोने की जंजीर जैसा है। लेकिन आखिर तो जंजीर ही है, इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए। भूलना नहीं चाहिए । इसीलिए पुण्योपार्जन करने के बाद उसके फलरूप सुख को भुगतने के लिए पुनः दूसरा जन्म तो लेना ही पडेगा। चाहे वह स्वर्ग में देव का जन्म भी ले तो उसे हजारों-लाखों वर्षों का आयुष्य उस सुख को भोगने के लिए बिताना पडेगा। लेकिन यह भी ध्यान रखना ही चाहिए कि इतने लाखों-करोडों वर्षों का संसार तो बढा।
अब दूसरी बात यह है कि... इतने वर्षों तक पुण्य के फलरूप सुखं को भुगतते हुए नए पुण्य को उपार्जन करेगा या पाप भी उपार्जन करेगा? इसका क्या विश्वास? हो सकता है कि पुराने पुण्य को भोगते समय नया पुण्य भी उपार्जन कर सकता है, और यह भी हो सकता है कि नया पाप भी उपार्जन कर सकता है । यह तो जीवों की अपनी वृत्ति पर निर्भर करता है । देखा जाता है कि पुण्य से प्राप्त सुख को प्राप्त करके विपुल साधन सामग्रियों की प्राप्ति के लिए, अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए, स्वार्थ को साधने के लिए जीव ज्यादा पाप भी करते हैं । अतः लगता है कि संसार में दुःख के उदय में दुःखी जीव ज्यादा पाप करने की अपेक्षा, पुण्य के उदय में सुखी जीव ज्यादा प्रमाण में पाप करते हैं। यद्यपि यह सर्वथा गलत है लेकिन फिर भी संसार के सुखी सम्पन्न जीव अपनी सुख-संपत्ति का दुरूपयोग करके नया पाप उपार्जन करते हैं। इस तरह एक पुण्यजन्य सुख को भोगने जाते नए पाप करके भव संसार बढाते हैं । अतः पुण्य को भोगना इतना ज्यादा सरल नहीं है । इसीलिए महापुरुषों ने पुण्य को भोगने के बजाय पुण्य का त्याग . करना, सुख भी छोडना सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया है। , २) संवरलक्षी धर्म
संवर आत्मा में आनेवाले अशुभ पाप कर्म के आश्रव को रोकने का काम करता है । अतः जब कोई जीवविशेष संवरलक्षी धर्म करता है तब यह जरूर समझा जाता है कि वह आत्मा में आनेवाले, लगनेवाले नए पापों को रोकता है । अर्थात् नए पाप करना नहीं चाहता है । पापों से निवृत्त होता है । संसार में प्रतिदिन जहाँ अठारह ही पापों के लगने की संभावना है । तथा मिले हुए मन, वचन और काया ये तीनों साधन भी हमेशा शुभाशुभ कर्म उपार्जन कराते रहते हैं। बस, अब पापों के आगमन को रोकना है। क्योंकि अनादिकाल से जीव के पाप करने के संस्कार बने हुए हैं। इसी कारण संसार में किसी को पाप करना सीखना नहीं पडता है । सभी जीवों को पाप करना स्वाभाविक रूप में आता
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आध्यात्मिक विकास यात्रा