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ही है । बस, अब उसे पाप कैसे नहीं करना? किये हुए पापों को कैसे धोना? आते-लगते हुए पापों को कैसे रोकना? और कैसे पापों से बचना यह समझाना-सिखाना-कराना बहुत जरूरी है। क्योंकि इसके संस्कार अनादिकालीन नहीं हैं। इन पापों के आगमन-आश्रव को रोकना यही संवर है और संवर धर्म है । इसीलिए धर्म में व्रत-विरति और पच्चक्खाण का स्वरूप दर्शाया गया है।
जगत् में विद्यमान अनेक धर्मों में संवरकारक ऐसी व्रत-विरति-पच्चक्खाणादि की बातें बहुत कम हैं। जबकि जैन धर्म ने व्रत-विरति और पच्चक्खाण की प्राधान्यता रखी है । वीतरागी परमात्मा ने धर्म ही विरतिमय बताया है। फिर उसमें गृहस्थ और साधु के अनुरूप देशविरति और सर्वविरति के भेद करके स्वरूप समझाया। धर्म चाहे साधु के लिए हो या गृहस्थ-श्रावक के लिए हो अर्थात् पाँचवें और छटे गुणस्थानवर्ती धर्म हो लेकिन दोनों के लिए विरतिरूप संवर की प्राधान्यता पूरी रखी है। श्रावक घरबारी-गृहस्थी-संसारी है, इसके लिए उसकी मर्यादा-सीमा के अनुरूप धर्म रखा है। और साधु सर्वथा संसार का त्यागी है, विरक्त है, अलिप्त है इसलिए बिना किसी मर्यादा के साधु के लिए महाव्रतों की सर्वथा सर्वविरति रखी है। ___ विरति संवररूप है । संवर विरतिरूप है । पापों के आश्रव-आगमन को रोकनेवाली विरति संवररूप ही है। उदाहरणार्थ आप दो घडी की सामायिक लेकर बैठिए... यह ४८ मिनट की विरति है । संवर है । अब आप दो घडी के लिए विशेष प्रतिज्ञा-पच्चक्खाण करके बैठे हैं । अतः षड् जीवनिकाय की विराधना की कोई संभावना नहीं रहेगी। किसीके करने या होते रहने पर भी सामायिकवाले विरतिधर को कोई पाप नहीं लगेगा। वह मन-वचन-काया से न करने–न कराने के पच्चक्खाण लेकर बैठा है । उतनी देर संवर
साधु आजीवन तक सर्वथा सब पापों को न करने की भीष्म प्रतिज्ञारूप महाव्रत के पच्चक्खाण लेकर बैठा है। अतः नए पाप करने की, लगने की कोई संभावना ही नहीं रहती है। यह सर्वविरति धर्म है । सर्व संवर है। संपूर्ण संवर है।
शास्त्रकार महर्षियों ने नौं तत्त्वों के स्वरूप को समझाते हुए ५७ भेद से संवर का स्वरूप दर्शाया है। ।
समिइ-गुत्ती-परिसह-जइधम्मो-भावणा-चरित्ताणि। . पण-ति-दुवीस-दस-बार-पंच भेएहिं सगवन्ना ।।
कर्मक्षय- “संसार की सर्वोत्तम साधना"
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