________________
भले ही वे संख्या में गिनती के थोडे ही हो लेकिन होते जरूर है । वे अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करके ही संतुष्ट होते हैं। ___ठीक इसी तरह जो जीव मात्र पुण्योपार्जन करके सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति करना चाहते हैं, धर्म करने का इतना ही फल पाना चाहते हैं, वे मात्र १०० में से किसी कदर ३५ गुणांक प्राप्त करके संतुष्ट होनेवाले जैसे हैं । उनको आगे ज्यादा गुणांक प्राप्त करने की इच्छा ही नहीं रहती हैं। क्योंकि साध्य-लक्ष्य ही सुख प्राप्ति और दुःख निवृत्ति तक ही सीमित है । इससे आगे संवर-निर्जरा के लक्ष्य को वे सोच ही नहीं सकते हैं । यदि कल किसी को कहा जाय कि देव, गुरु और धर्म इन तीनों उपास्य तत्त्वों का मात्र सुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्ति के ही साध्य को साधने के लिए साधनरूप में उपयोग मत करिए।.... यह सुनकर उनका दिमाग चकराने लग जाएगा। वे शायद अवाचक ही हो जाएंगे। अरे !.... यदि सुख की प्राप्ति भी नहीं करनी और दुःख की निवृत्ति भी नहीं करनी तो फिर करना क्या? अरे...रे...बस, तो तो देव, गुरु धर्म की कोई आवश्यकता ही नहीं है। फिर क्या काम है? फिर तो कुछ करने जैसा शेष रहता ही नहीं है। इसका कारण और कोई नहीं हैं सिर्फ उनकी आगे के संवर-निर्जरादि के लक्ष्य का ख्याल ही नहीं है।
लक्ष्य की दृष्टि से चार प्रकार का धर्म
१) पुण्याश्रवात्मक धर्म २) संवरलक्षी धर्म । ३) निर्जरालक्षी धर्म
४) मोक्षैकलक्षी धर्म नौं तत्त्वों में ही दिये हुए तत्त्वों के आधार पर लक्ष्य-साध्य रखकर धर्म दर्शाया गया है। उससे धर्म करने का हेतु निश्चित होता है। उन जीवों के भाव-परिणामों का ख्याल अन्यों को आ सकता है। १) पुण्याश्रवात्मक धर्म
पुण्याश्रव लक्षी धर्म करनेवाले जीव पुण्य उपार्जन करना चाहते हैं। पुण्य शुभकर्मरूप है । इसका आत्मा में आश्रव-आगमन होता है । पुण्य भी शुभकर्मात्मक है।
कर्मक्षय-“संसार की सर्वोत्तम साधना"
..
८५१