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अध्याय १३
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कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना"
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तम्हा एएसि कम्माणं, अणुभागा वियाणिया।
एएसिं संवरे चेव, खवणे य जए बुहो॥ ३४/२५ -अनन्त उपकारी अनन्तज्ञानी अरिहंत सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीरस्वामी ने अपनी अन्तिम देशना स्वरूप श्री उत्तराध्ययन सूत्र के ३४ वें कम्मपयडी अध्ययन में ८ कर्मों का स्वरूप बताकर अन्त में इन आठों कर्मों के आश्रव मार्गों का संवर करके.... उन्हें खपाने की-क्षय करने की साधना बताई है।
नौ तत्त्वों में जीवादि तत्त्वों की गणना की है । जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौं तत्त्व बताए हैं । इनमें मूलभूत द्रव्य के रूप में तो सिर्फ दो ही द्रव्य हैं- जीव और अजीव । ये दोनों अपने अपने गुणों की दृष्टि से स्वतंत्र सर्वथा भिन्न भिन्न द्रव्य हैं । यदि ऐसा नहीं होता तो दोनों को दो द्रव्य गिनने की आवश्यकता ही नहीं थी। दोनों को दो द्रव्य गिने हैं अतः यही सिद्ध करता है कि..दोनों सर्वथा संपूर्ण-स्वतंत्र भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं। ___ शेष सात तत्त्व द्रव्य स्वरूप नहीं है । इन सात में धर्म का स्वरूप समझाया है । और धर्म के अभाव में अधर्म क्या और कैसा होता है यह भी पाप-से दर्शाया गया है । कर्म का स्वरूप समझाने के लिए-आश्रव, संवर, निर्जरा और बंध तत्त्वों का स्वरूप समझाया है। आश्रव में कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आत्मा के प्रदेश में आगमन आश्रवरूप है । संवर तत्त्व में आते हुए कर्माणुओं को कैसे रोकना? यह धर्म की प्रक्रिया बताई है । अतः संवर धर्म प्रधान है । बंध में आश्रव मार्ग से आए हुए कर्माणु आत्म प्रदेशों के साथ बंधकर एकरस कैसे हो जाते हैं ? यह समझाया है । अतः बंध तत्त्व कर्म विज्ञान के स्वरूप को समझने में सर्वोत्तम है।
निर्जरा तत्त्व में आत्म प्रदेशों के साथ बंध होकर कर्माणु जो दीर्घ काल तक एक रस होकर रहे हुए हैं उन्हें उखाडकर कैसे फेंकना? क्षय कैसे करना यह समझाया है। निर्जरा = अर्थात् कर्म का क्षय-नाश करना । संवर कर्मों के आगमन को रोकता है
कर्मक्षय- "संसार की सर्वोत्तम साधना"