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एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। . दसहा उ जिणित्ताणं, सव्व सत्तु जिणामहम् ॥ १३/३६ एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि च।
ते जिणित्तु जहाणायं, विहरामि अहं मुणी ।। १३/३८ -श्री उत्तराध्ययन सूत्र में केशी-गौतम संवाद नामक अध्याय में- एक को जीतने से पाँच और पाँच को जीतने से दस और इस तरह सर्व शत्रुओं को जीता जा सकता है । इनमें एक आत्मा को जीतने से पाँचों इन्द्रियाँ और फिर चारों कषाय इस तरह १ + ५ + ४ = १० को जीते जा सकते हैं । आत्मा सबकी केन्द्रस्थानरूप है । अतः सर्वप्रथम इसको जीतना आवश्यक है।
इस तरह सभी कर्मों में मोहनीय कर्म मुख्य राजा है । इसकी सेना में मुख्य सेनापति - मिथ्यात्व है । २८ प्रकृतियों की इसकी सेना बलवत्तर है । अतः सर्व प्रथम मोहनीय कर्म को ही जीतना चाहिए। जैन धर्म में महामंत्र नवकार में “नमो अरिहंताणं" का मूल मंत्र दिया है । इस मूलमंत्र के अरिहंत शब्द में- 'अरि' + 'हंत' शब्द है । अरि अर्थात् आत्मा के राग-द्वेष-मोहादि शत्रु और इनका क्षय करने का लक्ष्य रखकर चलनेवाला साधक एक दिन अरिहंत बन सकता है । ऐसी साधना साधकर बने हुए अरिहंत साधना के इस रहस्य का आदर्श हमारे जैसे साधकों के लिए पीछे छोड गए हैं। अतः “सव्व पावप्पणासणो" सभी पाप कर्मों का प्रकृष्ट नाश-(क्षय) करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इसी पटरी पर हम साधक भी हमारी गाडी चलाएंतो साध्य को साधने में साधक को सिद्धि प्राप्त हो सकती है और साधक स्वयं सिद्ध बन सकता है। ... १२ गुणस्थानों पर एकमात्र मोह क्षय की प्रक्रिया___ पहले गुणस्थान से लगाकर १२ गुणस्थानों पर अन्य कर्मों की अपेक्षा एक मात्र मोहनीय कर्म को ही समूल क्षय करने की साधना बताई गई है । कुल १४ गुणस्थान हैं। इनमें १४ वाँ गुणस्थान तो सिर्फ पंचं ह्रस्वाक्षरोच्चार कालमात्र समय का ही है। वहाँ तो ज्यादा समय ही नहीं है । और ज्यादा कुछ करना भी नहीं है । तेरहवें गुणस्थान पर तो चारों घाती कर्मों का क्षय करके आत्मा अरिहंत बन जाती है । अब रही बात १२ गुणस्थानों की... इन १२ में एक मात्र मोहनीय कर्म का क्षय करने की ही प्रक्रिया है।
अतः धर्म कैसा होना चाहिए ? जो कर्म का क्षय कराने में समर्थ सक्षम-सबल हो वही धर्म सच्चा धर्म है । काम का धर्म है । मिथ्या धर्म तो ऊपर से कर्म बंध बढाकर और
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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