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गुणों के विकास की साधना का क्रम अखण्ड रूप से निरंतर जारी रहना चाहिए। बस, इसीका नाम है गुणस्थान क्रमारोह ।
मात्र मोहनीय कर्म के क्षय की साधना____८ कर्मों में दो विभाग है । एक विभाग घाती कर्म का और दूसरा अघाती कर्म का। दोनों में ४-४ कर्मों की विवक्षा से कुल ८ कर्मों की गणना है। चारों अघाती कर्म ज्यादा चिन्ताजनक नहीं है। क्योंकि वे तो बेचारे सीधे आत्म गणों का घात करने का काम नहीं करते हैं। वे देहलक्षी हैं। शरीरप्रधान उनका कार्यक्षेत्र है। नाम कर्म ने हाथ-पैर-अंगोपांग-गति-जाति, इन्द्रियाँ-रूप-रंगादि युक्त शरीर बनाकर दे दिया और जीवात्मा को एक ढांचे में डालकर संसार के व्यवहार में भेज दिया। गोत्र कर्म ने अपनी तरफ से उच्च-नीच गोत्र, ऊंचा कुल, जाति-खानदानी या हल्की कक्षा का कुल-गोत्र-खानदानी आदि देने का काम किया। आखिर जीव द्वारा जैसा उपार्जित कर्म था तदनुसार ही मिलता है । इसके पश्चात वेदनीय कर्म ने शरीर का ध्यान रखकर शरीर पर रोग प्रगटाना या नहीं का कार्यभार संभाला। सुख-शाता देनी या दुःखअशाता-वेदना-पीडा-तकलीफ देनी? इसकी जिम्मेदारी वेदनीय कर्म ने अदा की। और आयुष्य कर्म ने निर्धारित काल अवधि रहने के लिए दी। इस जन्म में आकर इस शरीर-योनी में जन्म लेकर कितने वर्षों तक यहाँ रहना? कितने वर्षों का जीवन जीना इत्यादि काल गणना का विभाग संभालकर काल अवधि का आयुष्य दे दिया।
इस तरह चारों अघाति कर्मों ने अपना-अपना कार्यक्षेत्र विभाग संभालकर अपना-अपना कर्तव्य निभाया। दूसरी तरफ चार घाती कर्म है । इनमें आत्मा के मूलभूत गुणों का घात करने की प्रबल शक्ति है। इन चारों को शरीर, अंगोपांग, रूप-रंग-गति–जाति-आदि किसी से कोई मतलब ही नहीं है । ये सीधे आत्म गुणों का घात करनेवाले घातक हैं । ज्ञानावरणीय कर्म ने आत्मा के मुख्य ज्ञान गुण का ही गला घोंट दिया। और ज्ञान को दबा दिया। आवृत्त-आच्छादित कर दिया । परिणाम स्वरूप आत्मा अज्ञानी-अल्पज्ञानी बन गई। जैसे प्राण के बिना जीना संभव नहीं है वैसी ही स्थिति जीवात्मा के लिए ज्ञान के बिना जीने में होती है । ज्ञान गुण का घात करने से आत्मा की ज्ञान की मात्रा सर्वथा घटा दी.. और जैसे कोई हाथ-पैर से विकलांग-पंगु बनता है वैसे ही जीव ज्ञान से पंगु बना । वृद्धि का अंश मात्र बचा । सर्वथा ज्ञान विवेक रहित स्थिति में कैसा जीवन पंगु बनता है ? इसे वृद्धि विकल कहते हैं।
• आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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